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वहां उपस्थित सभी लोग सकते में थे. मंत्र पढने के बाद वशिष्ठ ने सीताजी से कहा कि वे उनके पीछे आ जाये. सीताजी बहुत ही खिन्न मन से गुरु वशिष्ठ के पीछे जा खड़ी हुई. तब श्रीराम ने कहा, गुरुवर अब कामधेनु भी ले ही लीजिये.

वशिष्ठ ने भगवान श्रीराम के इस प्रस्ताव पर उत्तर दिया, श्रीराम मैंने केवल तुम्हारी उदारता और दान देने हिम्मत आंकने के लिये ही यह परीक्षा ली थी. अब यह खेल खत्म हुआ समझो. तुम सीता के भार के आठ गुने के बराबर सोना दे कर सीता को वापस ले लो.

भगवान श्रीराम ने वैसा ही किया और आठ गुना सोना गुरु वशिष्ठ को तुरंत दिलवाया गया. इसके बाद गुरु वशिष्ठ बोले, श्रीराम अब मेरा आदेश सुनो, आज से अब कभी कौस्तुभमणि, कामधेनु, पुष्पक विमान, अयोध्यापुरी का राज्य किसी को भी दान देने का नाम भी मत लेना.

वशिष्ठ ने आगे कहा, पत्नी दान देने की वस्तु नहीं होती इसलिये आगे से सीता को दान देने की सोचना भी मत. इन सब के अलावा ब्राह्मणों को तुम किसी भी चीज का दान कर सकते हो. यदि तुम मेरी इन बातों को नहीं मानोगे तो तुम्हें बहुत कष्ट भोगना पड़ेगा. यह तय है.

गुरु वशिष्ठ ने आठ गुने भार के बराबर सोना और बाकी आभूषण लेकर मां सीता को दो कपड़ों में वहीं तत्काल ही वापस लौटा दिया. इस अवसर पर भारी मात्रा में फूल बरसाये गये और यज्ञ समाप्त हो जाने के बाद के जो भी काम रह गये थे पूरे किए गये.

स्रोत: आनंद रामायण

संकलनः सीमा श्रीवास्तव

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