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विद्यापति ने तुरंत हां कर दी. गणपति की माया सफल होते होते रह गई. महादेव का वास्तविक स्वरूप तो प्रकट हो गया लेकिन उनके शिवलोक लौटने की बात फिर आगे के लिए टल गई.

विद्यापति के लिए तो इससे बड़ा सुख जीवन में कुछ था ही नहीं. उन्हें सदैव शिव का साथ मिल रहा था लेकिन कैलाश पर जगदंबा का धैर्य चूक रहा था.

उन्होंने अब मामला खुद अपने हाथ में लिया. उन्होंने धरती पर अपनी दृष्टि फेरी और पंडितानी पर ध्यान केन्द्रित किया. उनकी माया से पंडितानी का व्यवहार दिन प्रति दिन उगना के प्रति रूखा होता गया.

स्वाभाविक रूप से उगना के वास्तविक स्वरुप को जानने के बाद विद्यापति का सारा ध्यान अपने आराध्य पर ही केन्द्रित रहने लगा जिसकी वजह से पंडितानी स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगी थीं.

एक नौकर के साथ अपने पति का इतना समय बिताना उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था.

वह उगना को जली कटी सुनाकर अपने मन की भड़ास निकालती थीं. विद्यापति ने महादेव को वचन दिया था इसलिए मन मसोसकर रह जाते.

ऐसा बहुत समय तक चलने वाला नहीं था. महामाया की माया हर तरफ व्याप्त थी.

एक दिन माता जगदंबा ने अपनी माया घनीभूत की.

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