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नाम पूछने पर शिवजी ने नाम बताया- “उगना”. उगना बने शिवजी महाकवि विद्यापति के दरवाजे पर पानी भरने लगे, गायों की देखभाल करते, रसोई के लिए लकड़ी काटते. दरवाजे पर बैठकर बचा-खुचा खाना खाया करते थे.
पर ये सारा काम करते हुए विद्यापति की भक्ति और उनकी कविता का आनंद लेते थे. उनकी सुमधुर स्वर लहरी में स्नान करते थे जिसके मोह में वह कैलाश छोड़कर आए थे.
जब स्वयं महादेव ने विद्यापति के दरवाजे पर आसन जमाया था तो फिर कोई कमी कैसे रहती. दरिद्रता का जीवन बिता रहे विद्यापति का मान-सम्मान बढ़ने लगा. वहां के राजा तक उनकी प्रसिद्धि पहुंच गई.
तत्कालीन मिथिला(दरभंगा) नरेश शिवजी सिंह ने उन्हें सम्मान के साथ अपना राजकवि बनाया.
विद्यापति को राजा और उसके सम्मान से क्या लेना-देना पर राजा के नाम में उनके आराध्य का नाम भी था इसलिए कैसे मना करते!
राज्य आश्रय में आकर विद्यापति का परिचय बाहर की दुनिया से भी हुआ. विद्यापति की रचनाएं दूर-दूर तक जाने लगीं.
तो इस तरह महादेव की भक्ति में लीन विद्यापति गांव के अपने आंगन से उठकर चर्चित कवि बन गए लेकिन उनकी सहजता और शिवभक्ति में कोई बदलाव नहीं आया.
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