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श्रीराम हनुमानजी से बोले- आप मुझे पुत्र समान प्रिय हैं. आप मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करें.
इस पर श्री हनुमान जी बोले- प्रभु मुझे कभी भी आपके बराबर होने की अभिलाषा नहीं रही. जो सुख सेवक बनकर मिलता है वह बराबरी में नहीं मिलेगा.
इसलिए आपकी थाल में खा ही नहीं सकता. श्रीराम ने समस्त अयोध्यावासियों के समक्ष वानर जाति का सम्मान बढ़ाने के लिए कहा- हनुमान, मेरे हृदय में बसते हैं.
हनुमान की आराधना का अर्थ है स्वयं मेरी आराधना. यदि कोई मेरी आराधना करता है लेकिन हनुमान की नहीं तो वह पूजा पूर्ण नहीं होगी.
फिर श्रीराम ने अपने दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के बीचो-बीच एक रेखा खींच दी जिससे वह पत्ता जुड़ा भी रहा और उसके दो भाग भी हो गए.
इस तरह भक्त और भगवान दोनों के भाव रह गए. श्रीराम की कृपा से केले का पत्ता दो भाग में बंट गया. भोजन परोसने के लिए इसे सबसे शुद्ध माना जाता है.
शुभ कार्यों में देवों को भोग लगाने में केले के पत्ते का ही प्रयोग होता है.
।।सियापति रामचंद्र की जय! पवनसुत हनुमान की जय।।
संकलन व संपादन- राजन प्रकाश
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