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उसके हाथ में दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था. इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेता.

उसने अपने कई इष्ट मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर उनकी परीक्षा ली. सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया.

जो भी अनुभव रहा सब दुखी करने वाला. वह सोचता जा रहा था कि संसार में सब इतने बुरे क्यों हो गए हैं. सब दोहरी मानसिकता वाले लोग हैं.

जो दिखते हैं दरअसल वे हैं नहीं. इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुखी मन से वह किसी तरह घर तक पहुंच गया.

उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया. उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है. उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते हैं. इनकी परीक्षा की जाए.

उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली. उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा. ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है. संसार सारा मिथ्या पर चल रहा है.

अब उस बालक के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी.

उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर. शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया.

गुरुजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाजा लगा चुके थे.

चेले ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष हैं. कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा?

क्षमा के साथ कहता हूं कि स्वयं आपमें और अपने माता-पिता में मैंने दोषों का भंडार देखा. इससे मेरा मन बड़ा व्याकुल है.

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