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लोमश ऋषि ने युधिष्ठिर को अगस्त्य की उत्पत्ति की कथा सुनाई थी. एक यज्ञ में समस्त देवतागण आमंत्रित थे. वहां मित्रवरुण देवता भी आए.
इंग्र के साथ स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी भी आई थी. उर्वशी का रूप देखकर मित्र वरूण आसक्त हो गए. उर्वशी ने उन्हें देखने के बाद उपहास भरी मुस्कान से मुंह फेर लिया.
मित्रवरुण लज्जा से गड़ गए. उनका दिव्यतेज वीर्य के रूप में पूंजीभूत हुआ जिसे एक कुंभ यानी घड़े में संरक्षित कर लिया गया.
कुंभ यज्ञ का था. उसका स्थान, जल तथा सब अत्यंत पवित्र थे. उसी कुंभ के मध्य भाग से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य का जन्म हुआ. उर्वशी उनकी मानस जननी कही गईं.
एक बार अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे. राह में उन्हें अपने पितर नजर आए जो एक गड्ढे में सिर उल्टा किए लटक रहे थे.
पितरों से अगस्त्य से ऐसे लटकने का कारण पूछा. पितरों ने कहा- तुम्हारे वंश न बढ़ाने के निर्णय के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है क्योंकि भविष्य में हमें तर्पण नहीं मिलेगा.
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