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अचानक ही उनके शरीर से रोशनी फूटी, वे देह से निकली आग की लपटों में घिर गये. अपने सदाचार के बल पर अगले ही क्षण वे अपने घर पर थे. वरुथिनी निराश खड़ी रह गयी.
कलि नाम का एक गंधर्व जो वरूथिनी से एकतरफा प्रेम करता था, पर वरूथिनी घास न डालती थी, उसने वरूथिनी को उदास देख अपनी योग माया से जान लिया की वरूथिनी का यह हाल किसी ब्राह्मण के कारण है.
कलि ने वरूथिनी को हासिल करने के लिये ब्राह्मण का भेष धरकर उसके पास पहुंच गया. वरूथिनी ने उसे देखकर ब्राह्मण देव, कृपा करो कहते हुये फिर लिपट गयी. गांधर्व ने ब्राह्मण बन उसके साथ रहना शुरू किया तो वरूथिनी को एक बेटा पैदा हुआ.
सूर्य के समान तेजस्वी यह बालक ‘स्वरोचिष’ नाम से प्रसिद्ध हुआ. स्वरोचिष आयुर्वेद के भारी जानकार और धनुष चलाने में माहिर थे. स्वरोचिष ने विद्याधर इंदीवर की कन्या मनोरमा के शादी की. मनोरमा की दो सुंदर सखियां कलावती और विभावरी शाप के चलते कुष्ठ और क्षय से पीड़ित थीं.
स्वरोचिष ने उन्हें अपनी चमत्कारिक औषधि से रोगमुक्त कर दिया तो उन दोनों के पिताओं ने उनको स्वरोचिष को ही सौंप दिया. साथ में पद्मिपनी विद्या और भूतप्राणियों की बोली बोलने तथा समझने की शक्ति प्रदान की.
दोनों से स्वरोचिष को तीन बेटे हुए. एक बार स्वरोचिष वन विहार करने गए, एक हिरनी ने कहा कि वे उसे गले लगे. आलिंगन करते ही हिरनी अप्सरा बन कर बोली- देवताओं ने मुझे आपकी स्त्री बनाया है आप मुझसे एक ऐसा पुत्र पैदा करें जो समूची धरती का स्वामी हो. स्वरोचिष ने उसकी बात मान उससे एक दिव्य पुत्र पैदा किया.
स्वरोचिष का पुत्र होने से उसका नाम स्वारोचिष मनु नाम रखा गया. इनका समय ही स्वारोचिष मन्वन्तर कहलाता है, जो दूसरा मन्वन्तर है. स्वारोचिष मनु के कुल नौ पुत्र थे, इन्हीं में से किम्पुरुष आदि पुत्र उन दिनों समस्त संसार के राजा बने थे.
स्रोत: मार्कंडेय पुराण
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश
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