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एक दिन असुरों ने इन पर आक्रमण कर दिया. दो राज्यों की एकजुट सेना होने के बावजूद असुर भारी पड़े. दोनों राजा हार गये. असुर बहुत सारा धन और तमाम कीमती और दुर्लभ चीजें उठा ले गए.

दोनों राजा इस हार से बहुत दुखी हुए. क्या किया जाए, किस तरह ताकतवर असुरों से बदला लिया जाए और अपनी धन दौलत के साथ गयी इज्जत कैसे लौटे? बहुत सोचा पर कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.

सोचते-सोचते उन्हें ध्यान में आया कि कुलगुरु भरद्वाज ऋषि के पास जाकर उनसे प्रार्थना की जाए. वे जरूर कोई रास्ता बतायेंगे. गुरु चाह लेंगे, सहायता मिली तो हमारा मनोरथ ज़रूर पूरा होगा.

महाराज अभ्यवर्ती और प्रस्तोक अगले ही दिन गुरु भरद्वाज ऋषि के पास पहुँचे. पांयलागी और अभिवादन तथा हालचाल पूछने बताने के बाद दोनों ने अपने ऊपर पहली बार पड़े संकट से निकलने का कोई रास्ता न सूझने के बात बतायी.

दोनों ने कहा- गुरु जी असुरों ने हमें बुरी तरह से हराया और सारा धन लूटकर खजाना खाली कर दिया. आप तो जानते ही हैं हम सदा धर्म पर अड़िग रहते हैं. फिर भी हार गये.

दोनों नरेशों ने दुखी होते हुये कहा- बहुत सोचने के बाद हम इस फैसले पर पर पहुंचे हैं कि अब आप-जैसे गुरुजनों की कृपा के बिना इस समस्या का हल संभव नहीं. आप सहायक हों तभी हम अपने बली दुश्मनों को जीत सकते हैं.

ऋषि भरद्वाज ने कहा- आप लोग चिंता न करे, निश्चिंत हो कर घर जायें, मैं आप की इच्छा पूरी किए देता हूं. थोड़ा समय लगेगा. दोनों राजा ऋषि को प्रणाम कर वापस लौट गए.
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