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महाभारत के युद्ध का यह अंतिम दिन था. द्वापर युग के अंत में कुरुक्षेत्र का महायुद्ध समाप्ति की ओर था. दुर्योधन मरणासन्न पड़ा था तो उसने अश्वत्थामा को कौरवसेना का सेनापति नियुक्त कर दिया.
अंतिम सांसे गिनते समय दुर्योधन ने अश्वत्थामा से वचन ले लिया था कि नीति से हो या अनीति से उसे पांडवों का शव देखना है. पांडवों का शव देखे बिना उसे मित्रऋण से मुक्ति न होगी.
अश्वत्थामा ने वचन दिया और बचे-खुने सेनानायकों के साथ घृणित योजना बनाने लगा.
भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञात था कि अंतिम दिन काल कुछ चक्र चलाएगा जरूर. इसके निवारण हेतु श्रीकृष्ण ने आदिदेव भगवान शिव की विशेष स्तुति आरंभ कर दी.
श्रीकृष्ण ने शिवजी की स्तुति करते हुए कहा- हे जगत के संरक्षक, सब भूतों के स्वामी, सभी प्रकार के पापों से मुक्ति दिलाने वाले रूद्र! मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ. भगवन! आपकी कृपा से ही पांडवों ने यह धर्मयुद्ध जीता है. आपने युद्धकाल में इनकी सब प्रकार से रक्षा की.
हे भोलेनाथ, ये पांडव मेरे आश्रय में हैं. आप मेरे भक्त पांडवों की हर प्रकार से रक्षा कीजिये.
भगवान श्रीकृष्ण जब स्वयं पुकारें और भोलेनाथ न सुनें, ऐसा कैसे संभव था! भगवान् शंकर नंदी पर सवार हो हाथ में त्रिशूल लिए पांडवों के शिविर की रक्षा के लिए आ गए.
उस समय महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये थे. अन्य पांडव सरस्वती के किनारे शिविर में थे.
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यह कथा गढ़ी हुई है और गलत है। भविष्य पुराण को काफी हद तक बदला गया है। महाभारत युद्ध आरम्भ होने के बाद कहीं भी भगवान् शिव की पूजा का उल्लेख वेदकव्यास द्वारा कही गयी और भगवान् गणेश द्वारा लिखी “जय संहिता” यानि महाभारत के किसी खण्ड में नहीं है। इस कथा को पृथ्वीराज चौहान व् उनके कुल में उत्पन्न राजपूतों के वध हेतु झूठा बनाकर लिखा गया था, क्यूंकि आल्हा और उद्दल के महोबा राज्य की चौहान कुल से शत्रुता थी।
सत्य यह है कि राजस्थान के लोक गीतों व् स्थानीय इतिहास में आल्हा को भीम का व् उद्दल को युद्धिष्ठिर का अवतार माना जाता है, परन्तु इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इस मान्यता का आधार यह भी है कि दोनों आल्हा व् उद्दल दैवीय शक्तियों से युक्त थे और स्वयं अश्वत्थामा ने पृथ्वीराज को दो शबदभेदि दिव्य बाण आल्हा और उद्दल मारने के लिए दिए थे, जिनमें से एक बाण सेचौहान ने आल्हा को मारा था व् दूसरे बाण से अपने सौतले मामा शाहबुद्दीन घुरी को।