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जो स्वभाव से सज्जन हो, दूसरों के दुख से दुखी होता हो, दूसरे के सुख से आनंदित होता हो, सदा सबके प्रति सम्मान और करूणा का भाव रखता हो, जो सुख और दुख में एकभाव रहता हो- न सुख में बहुत इठलाता हो और न दुख में बहुत घबराता हो उसे देवतुल्य माना जाता है.

शास्त्रों के अनुसार वास्तव में वही संत कहे जाने के योग्य है- भले ही वह गृहस्थ ही हो. उस व्यक्ति पर ही ईश्वर की विशेष कृपा होती है. इस कृपा को प्राप्त करने के लिए जो वैचारिक तप है वही वास्तविक तपस्या है.

महात्माजी ने कितनी बड़ी बात कही. उनकी बात से दो उपदेश हैं, दोनों हमारे काम के.

पहली बात तो जल्दबाजी में किसी के प्रति राय नहीं बना लेनी चाहिए. जैसे सेठ ने महात्माजी के बारे में सोच लिया कि वह धन के प्रभाव में उसे सम्मान दे रहे हैं.

दूसरा, लोगों को जहां भी मौका मिलता है अपनी शेखी बघारने लगते हैं. न जाने कितने पैसे सिगरेट, शराब और अनाप-शनाप चीजों में फूंक देंगे लेकिन जहां किसी और के लिए सोचने की बात आएगी, उनकी आत्मा कांप जाएगी.

किसी सद्कार्य के लिए भी तब ही पैसे निकालेंगे जब उसके साथ नाम-प्रतिष्ठा मिले. अगर ऐसा न होता तो धर्मशालाओं में लगे बल्ब और ट्यूबलाइट पर लोग अपने खानदान का नाम क्यों लिखाते?

ईश्वर धन तो प्रदान कर ही देते हैं, लेकिन सबको उसके सही प्रयोग का अवसर प्रदान नहीं करते. किसी पुण्यकार्य में योगदान करने का अवसर मिले तो उसे सौभाग्य ही समझना चाहिए.

श्रीहरि ही यज्ञ अवतार हैं. दूसरों के लिए किया गया त्याग ही यज्ञ है. इससे ही लक्ष्मीपति श्रीहरि प्रसन्न होते हैं.

त्याग और अपरिचितों के प्रति दया का भाव मनुष्य को विचारों से संत बना देता है. परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं इसलिए इसके धारण करने वाला मान-प्रतिष्ठा से युक्त यशस्वी और संततुल्य आदरणीय हो जाता है.

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-राजन प्रकाश

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