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एक बार एक मछलीमार अपना कांटा डाले तालाब के किनारे बैठा था. तालाब में मछलियां बहुत थीं इसलिए उसे उम्मीद थी कि आज बहुत सारी मछलियां पकडकर ले जाएगा.

लेकिन उसे कांटा डाले काफी समय बीत गया और कोई मछली उसके कांटे में नहीं फंसी.

उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैंने काँटा गलत जगह डाला हो. तालाब के इस किनारे मछलियां आती ही न हों.

कांटा निकालकर कहीं और जाने से पहले उसने एक बार तालाब में झांककर ही देख लिया तो उसे अपने कांटे के आसपास ही घूमती-तैरती बहुत-सी मछलियां दिखीं.

उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी मछलियाँ यहां हैं फिर भी कोई मछली अब तक फंसी क्यों नहीं जबकि कांटे में चारा भी अच्छा लगाया है मैंने. इसका क्या कारण हो सकता है?

वह यही सब सोचकर परेशान हो रहा था कि वहां से गुजरता एक व्यक्ति उसे देखकर पास आ गया.

उस राहगीर ने कहा- लगता है भैया यहां पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो. इस तालाब की मछलियां अब कांटे में नहीं फंसतीं.

मछलीमार ने हैरत से पूछा- इस तालाब की मछलियां अब कांटे में नहीं फंसतीं! क्यों, ऐसा क्या हो गया है अब यहां?

राहगीर बोला- पिछले दिनों एक बहुत बड़े संत का यहां आगमन हुआ. उन्होंने इसी तालाब के किनारे डेरा जमाया था. महात्माजी ने यहां “मौन के महत्व’ पर प्रवचन दिया था.

उनकी वाणी में ऐसा तेज़ था कि उनका प्रवचन सारी मछलियां भी बड़े ध्यान से सुनतीं थीं. यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उस दिन के बाद जब भी कोई इन मछलियों को फंसाने के लिए कांटा डालकर बैठता है, ये “मौन’ धारण कर लेती हैं.

जब मछली अपना मुंह खोलेगी ही नहीं तो तुम्हारे काँटे में फँसेगी कैसे?

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