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पोथी में लिखा था- “अतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेत् न चिरायुषम्” यानी अधिक फैली हुई चीज की उम्र कम होती है।

उसे लगा कि वह रोटी खा लेता तो उसकी उम्र घट जाने का खतरा था। वह भी भूखा ही उठ गया। तीसरे को खाने के लिए ‘बड़ा’ दिया गया। उसमें बीच में छेद तो होता ही है।

उसे श्लोक याद आया- “छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति।”

इसका तात्पर्य है- छिद्र यानी भेद खुल जाने पर अनर्थ हो सकता है। यह बात तो उसे मालूम न थी। उसने सोचा छेद वाली वस्तु से अनर्थ होता है। उसने भोजन नहीं किया।

लोग उनके ज्ञान पर हंस रहे थे पर उन्हें लग रहा था कि वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अब वे तीनों भूखे-प्यासे ही अपने-अपने नगर की ओर रवाना हुए।

यह कहानी सुनाने के बाद स्वर्ण सिद्धि ने कहा, ‘‘पोथियों के ज्ञान के साथ यदि दुनियादारी का ज्ञान न हो तो इंसान आफत में पड़ जाता है।

इसीलिए शास्त्रों का ज्ञान होने का अर्थ परमज्ञानी हो जाना नहीं होता।

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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