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मत्सर ने भगवान् शिव की घोर तपस्या की. आखिरकार शिवजी को उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर दर्शन देना ही पड़ा. मस्तर ने शिवजी से अमरत्व का वरदान मांगा.

भोलेनाथ ने मत्सरासुर को कहा- परमात्मा के अतिरिक्त उत्पन्न होने वाले हर जीव का एक दिन क्षय होना निश्चित है. बस समय का अंतर हो सकता है. कोई पहले जाएगा, कोई बाद में परंतु यह विधान मेरा ही तय किया हुआ है. मैं इसे तुम्हारे लिए परिवर्तित नहीं कर सकता. कुछ और मांग लो.

मत्सरासुर ने मांगा- हे देवाधिदेव आप मुझे अमर नहीं बनाना चाहते तो मुझे यह वरदान दीजिए कि मैं अभय हो जाऊं. कोई मुझे युद्ध में परास्त न कर सके.

शिवजी ने उसे इच्छित वरदान प्रदान कर दिया. शिवजी से वरदान प्राप्त करके मत्सर लौटा तो शुक्राचार्य ने उसे दैत्यराज नियुक्त कर दिया. अब वह मत्सरासुर कहलाने लगा.

शुक्राचार्य ने मत्सरासुर को आदेश दिया कि दैत्यों की शक्ति को संगठित करो और तीनों लोकों को जीत लो. गुरू का आदेश पाकर मत्सरासुर ने सबसे पहले पृथ्वी विजय आरंभ किया. उसने भूलोकके नरपतियों पर आक्रमण कर दिया.

समस्त राजा मत्सरासुर के अधीन हो गए. पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया. उसने देवों को निर्बल करने के लिए यज्ञ-हवन आदि बंद करा दिए. मत्सरासुर ने पृथ्वी के बाद पाताल पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया.

भगवान शिव द्वारा अभय होने का वरदान था इसलिए उसे कोई परास्त नहीं कर पा रहा था. पृथ्वी और पाताल पर अधिकार करने के बाद मत्सरासुर ने स्वर्गलोक पर भी आक्रमण किया. समस्त देवों को पराजित करके स्वर्ग छीन लिया.

समस्त पराजित देवतागण ब्रह्माजी और विष्णुजी को साथ लेकर भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनके भक्त मत्सरासुर के अत्याचारों की पूरी गाथा कह सुनाई.

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