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वह आगे बोला- मैं स्वयं को अकेला महसूस करता हूं. कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे व्यवहार में ही कोई कमी है. कृपया बताएं कि मुझ में कहां गलती और कमी है. मैं प्रेम-स्नेह से वंचित क्यों हूं?
बुद्ध ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया, वह चुप रहे! सब लोग चलते रहे. व्यक्ति को अपने प्रश्न के उत्तर की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा थी.
चलते-चलते बुद्ध के एक शिष्य को प्यास लगी. कुआं पास ही था. रस्सी और बाल्टी भी पड़ी हुई थी.
शिष्य ने बाल्टी कुएं में डाली और खींचने लगा. कुंआ गहरा था. पानी खींचते-खींचते उसके हाथ थक गए पर वह पानी नहीं भर पाया क्योंकि बाल्टी जब भी ऊपर आती खाली ही रहती.
सभी यह देखकर हंसने लगे हालांकि कुछ यह भी सोच रहे थे कि इसमें कोई चमत्कार तो नहीं?
थोड़ी देर में सबको कारण समझ में आ गया. दरअसल बाल्टी में छेद था इसलिए बाल्टी ऊपर पहुंचने से पहले खाली हो जाती थी.
बुद्ध ने उस व्यक्ति की तरफ देखा और कहा- हमारा मन भी इसी बाल्टी की ही तरह है जिसमें असंख्य छेद हैं. आखिर पानी इसमें टिकेगा भी तो कैसे? मन में यदि सुराख रहेगा तो उसमें प्रेम भरेगा कैसे! क्या वह रुक पाएगा?
बुद्ध ने उस व्यक्ति से कहा- वत्स! तुम लोगों को प्रेम-स्नेह देते हो यह बहुत अच्छा गुण है. बदले में तुम्हें प्रेम मिलता भी है, पर वह टिकता नहीं है. वास्तव में तुम उसे अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि मन में विकार रूपी छेद हैं. जब तक विकार रूपी उन छेदों को भर नहीं लोगे यह असंतोष रहेगा ही.
प्रेम के बदले में प्रेम की इच्छा रखना अनुचित नहीं है किंतु तुम्हारा प्रेम निःस्वार्थ नहीं होता. तुम किसी के प्रति प्रेम, आदर, स्नेह या सम्मान प्रदर्शित करने से पहले ही यह तय कर लेते हो कि बदले में तुम्हें इतना ही प्रेम चाहिए. इस कारण उपजता है असंतोष का भाव.
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