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आज भगवान नृसिंहजी की जयंती है. भगवान श्रीहरि ने असुर हिरण्यकश्यपु का उद्धार करने के लिए लिया था यह क्रोध अवतार. यदि आप किसी तांत्रिक शक्ति की चपेट में आ गए हैं, आप पर कोई ऊपरी शक्ति प्रभावा हो रही है तो आपको भगवान नृसिंह की आराधना करनी चाहिए.
भगवान नृसिंह की आराधना से आसुरी शक्तियों का नाश होता है और मनुष्य में बल, बुद्धि, अन्याय से लड़ने की शक्ति, साहस और पराक्रम आता है. नृसिंह जयंती पर तो सूर्यास्त तक व्रत का भी विधान है.
यदि किसी कारण आप व्रत नहीं कर पाते तो भी मन में भगवान नृसिंह की छवि का ध्यान कर उनकी मानसिक पूजा कर सकते हैं. इस श्लोक से उनका ध्यान कर उनसे सभी प्रकार की गलतियों के लिए क्षमा मांगे और प्रार्थना करें कि हे प्रभु हम आपकी छत्रछाया में हैं. हमारी सदा रक्षा करें.
भगवान नृसिंह ने प्रह्लाद को एक कल्प के लिए राजा बनाकर कहा था कि तुम मेरी महिमा का श्रवण करते रहना और उसका ध्यान करते रहना, तम्हें किसी से भय न होगा. इसलिए आज के दिन भगवान नृसिंह की कथा जरूर सुननी और सुनानी चाहिए.
मैं आपको भगवान नृसिंह के चार पुुत्रों में से सबसे छोटे पुत्र प्रहलाद की कथा सुना रहा हूं कि आखिर असुर कुल में जन्मने के बाद भी वह कैसे इतने बड़े नारायणभक्त हो गए.
कथा आरंभ करने से पहले आपके लिए भगवान नृसिंह का स्तुति मंत्र इसे पढ़कर भगवान को प्रणाम करें और फिर कथा स्वयं सुनें औरों को भी सुनाएं. आज के जमाने में इसका सबसे अच्छा तरीका है कि कथा को अपने फेसबुक पर शेयर कर दें. न जाने कितने लोगों तक यह स्वयं पहुंच जाएगी.
भगवान को मानस प्रणाम करते हुए निम्न मंत्र से ध्यान करें.
श्रीनृसिंह मंत्रः
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
(हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, आपकी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है. हे नरसिंहदेव, आपका मुख सर्वव्यापी है, आप मृत्यु के भी यम हैं और मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ। मेरी सब विधि से रक्षा करें.)
अब कथा आरंभ करते हैं-
कहां हिरण्यकश्यपु जो नारायण का कट्टर शत्रु था और कहां उसका पुत्र जो नारायण का ऐसा भक्त कि उसकी रक्षा के लिए भगवान प्रकट हो गए थे.
यह बात बहुत हैरान करने वाली है न!आखिर ऐसा कैसे हुआ!
पौराणिक काल की बात है एक बार सहस्रणीकजी के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि हिरण्यकश्यपु जैसे विष्णुद्रोही के घर में प्रह्लाद जैसा विष्णु उपासक कैसे पैदा हुआ. उन्होंने श्री मार्कण्डेयजी से इस संदर्भ में अपनी इच्छा प्रकट की.
मार्कण्डेयजी ने उन्हें एक कथा सुनानी शुरू की- सहस्रणीक, दिति और कश्यप का पुत्र हिरण्यकश्यप बहुत बलशाली दैत्य था. एक समय ऐसा भी था कि त्रिभुवन ही उसके अधीन कहा जाने लगा.
अपार शक्तियां पाकर उसमें बड़ा घमंड़ आ गया. उसे अपनी शक्तियों से संतोष न था. वह और अधिक शक्तियां अर्जित करने की सोचने लगा.
उसने निर्णय लिया कि इसके लिए वह तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर वरदान मांगेगा. उसने ऐसा घोर तप करना आरंभ किया कि धरती कांपने लगी.
धरती ऐसे तपस्वी के ताप को संभालने में असमर्थ पा रही थी. पृथ्वी विचलित हुई तो भूकंप आ गया. पशु-पक्षी, जीव-जंतु भयभीत हो उठे और पूरी प्रकृति में ही हड़कंप मच गया.
हिरण्यकश्यप के दरबारी, बंधु, मित्र, भृत्य भी उसके पास पहुंचे और उसे सुझाया कि हे देव इस तप को रोक दीजिए. तीनों लोक आप के अधीन हैं. सारे देवताओं को आपने जीत रखा है.
आपको किसी का न तो भय है न ही कोई अन्य समस्या. सृष्टि का सारा ऐश्वर्य आपके अधीन है. आपकी कृपा पर ही अन्य जीव आश्रित हैं. आपको अब और क्या चाहिए?
आपके इस तप पर जाने से पूर्व आग लगने और भूकंप आने जैसे अपशकुन भी हो रहे हैं. आपके अपने हितैषी असुरों का भी कल्याण नहीं हो रहा है.
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