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सतयुग में एक बार पृथ्वी पर बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुईं. इस कारण घोऱ अकाल पड़ा. लोग भूखों मरने लगे. सप्तर्षियों भी अकाल के कारण दुखी होकर इधर-उधर भटक रहे थे.
भटकते-भटकते वे राजा वृषदार्भि की राजधानी पहुंचे. राजा धनी तो था किंतु बड़ा क्रूर और अभिमानी था. सप्तर्षियों को राजा की प्रवृति के बारे में पूरी जानकारी थी.
राजा उनके स्वागत में आया. प्रणाम करके बोला- मेरा सौभाग्य है कि आप पधारे हैं. सातों ऋषियों के एक साथ दर्शन का सौभाग्य अभी तक न मिला था. आप मेरे आतिथि बनें और दान ग्रहण करें.
सप्तर्षियों समझ गए कि पृथ्वी पर अकाल पड़ा है लेकिन यह राजा कुटिलता से बताना चाहता है कि उसके पास पर्याप्त संग्रह है. उसके पुण्य प्रताप से किसी चीज की कमी नहीं है और हम कुछ पाने की इच्छा से आए हैं.
ऋषियों ने कहा- हम आपकी बातों से प्रसन्न हैं लेकिन आपका दान ग्रहण नहीं कर सकते. राजा का दिया दान ऊपर से तो शहद जैसा होता है किंतु उसका परिणाम विष जैसा होता है.
आप यह धन किसी ऐसे व्यक्ति को दीजिए जिसे इसकी बहुत ज्यादा आश्यकता हो. ऋषि बिना दान लिए चले गए. ऋषियों ने प्रत्यक्ष दान नहीं लिया तो राजा ने सेवकों से गूलर के फलों में सोना भरवाकर ऋषियों की राह में रखवा दिया.
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