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राजपाट संभालने के बाद एक बार युधिष्ठिर ने विधि-विधान से महायज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में दूर-दूर से राजा-महाराजा और विद्वान ऋषि-मुनिजन आए।
यज्ञ पूरा होने के बाद देवताओं को पूरे विधान से दूध और घी से आहुति दी गई। सभी को प्रतीक्षा थी देवताओं द्वारा आकाश से बजाई जाने वाली आकाश-घंटियों की ध्वनि की।
यज्ञ की आहुति पूरी होने के बाद भी आकाश घंटियां सुनाई नहीं पड़ी। जब तक आकाश घंटियां नहीं बजतीं, यज्ञ अपूर्ण माना जाता है। महाराज युधिष्ठिर को बड़ी चिंता हुई।
वह सोचने लगे कि आखिर यज्ञ में कौन सी कमी रह गई कि आकाश घंटियां सुनाई नहीं पड़ीं। उन्होंने भगवान कृष्ण से अपनी समस्या बताई।
श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ऐसा लगता है कि इस यज्ञ में संभवतः कोई आत्मा तृप्त नहीं हुई इसीलिए देवों ने आपके लिए आकाश घंटियों से स्वर नहीं किया।
यह सुनकर युधिष्ठिर की चिंता और बढ़ गई। मेरे आयोजन में ऐसी कमी भी रह गई कि यहां कोई अतृप्त ही रह गया! यह तो सचमुच बड़ा अपराध है।
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