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क्या आपको कभी ऐसा लगा है कि कथा-प्रवचन, भजन-सत्संग में रमे लोगों में भी सारे छल-कपट प्रपंच भरे हैं, बल्कि उनमें तो कुछ ज्यादा ही है.
बात सनातन आस्था से जुड़ी है इसलिए इसे टाल देना ठीक नहीं. इसे समझने की जरूरत है क्योंकि अक्सर नादानी में सनातनी ही सनातन परंपराओं पर प्रश्न उठा देते हैं और तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को मजे लेने का मौका मिल जाता है.
आपके मन में कथा-सत्संग,भजन-पूजन के प्रति शंका का भाव अगर एक मिनट के लिए भी कभी मन में आया हो तो इसे धैर्य से पढ़िएगा. इसी बहाने घर-घर की एक समस्या पर आज विचार कर लेंगे जो शायद आप भी झेल रहे हों.
किसी युवा ने मुझसे प्रश्न किया- मेरी पत्नी बड़ी धार्मिक विचार की हैं. पूजा-पाठ करती हैं. पास में एक भजन-सत्संग ग्रुप है उसमें नियमित तौर से जाती हैं.
माता-पिता भी धार्मिक स्वभाव के हैं. कीर्तन आदि में जितना संभव,उतना जाते हैं. धार्मिक चैनलों पर दिनभर कथा-प्रवचन सुनते रहते हैं. घर को बाहर से देखें तो लगेगा किसी आश्रम में ही हैं लेकिन अंदर का कलह ऐसा कि पूछिए मत.
मेरे पास समय नहीं है. ऑफिस के लिए आते-जाते समय आपकी लिखी कथाएं प्रभु शरणम् पर पढ़ लेता हूं. मंदिर के सामने से गुजरता हूं तो रूककर प्रणाम कर लेता हूं. समय भी नहीं है.सोशल मीडिया आदि में समय निकल जाता है.
पूरा परिवार कथा सत्संग में लगा है फिर भी घर युद्ध का मैदान बना हुआ है. आप कहते हैं कि सज्जनों के साथ मित्रता और सत्संग दोनों से जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं. फिर मेरे घर में क्यों नहीं? सत्संग-भजन सब ढ़कोसले हैं.
बल्कि वहीं पर आकर लोग एक दूसरे के घर के झगड़ों को डिस्कस करते होंगे और आज झगड़े में नया क्या करना है- वह सीखते होंगे.
निराश व्यक्ति अंततः सारी झल्लाहट उसी पर निकालता है जहां से प्रतिरोध का स्वर नहीं आएगा. अक्सर धर्म-आध्यात्म को ही लोग कोसते हैं क्योंकि उससे उन्हें आशा सबसे अधिक होती है. पहले एक छोटी सी कथा सुनाता हूं.
राजा जनक बड़े ब्रह्मवेत्ता थे. उनके पास ज्ञानियों का जमावड़ा रहता था. एक ऋषि ने अपने पुत्र को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए जनक के पास भेजा. ऋषिपुत्र जनक के पास आया.
जनक पारखी थे, उस बालक के हाव-भाव से उसे पूरा समझ गए.
जनक ने महल में ही उसके रहने का प्रबंध कराया जो उसने स्वीकार लिया. अगले दिन जनक ने उससे आने का कारण पूछा.
ऋषिपुत्र ने कहा- महाराज मैंने सारे शास्त्र पढ़ लिए, संसार का ज्ञान प्राप्तकर लिया.
जनक ने पूछा- इस ज्ञान का क्या निचोड़ निकला, ऋषिपुत्र?
ऋषिपुत्र ने कहा- इस ज्ञान का यही निचोड़ समझा कि यह संसार मिथ्या है. दुख औऱ मृत्यु का सामना तो जीवन में सबको करना ही है. कुछ भी स्थिर नहीं है. ब्रह्म क्या है? मुझे ब्रह्मज्ञान की अभिलाषा है. इसलिए आपको पास आया हूं.
एक बालक के मुख से ऐसी गंभीर-गंभीर बातें सुनकर महाराजा जनकजी समझ गए कि इसने शास्त्र पढ़ तो अच्छा लिया है, समझा नहीं है. जनकजी उसे उपदेश देने लगे.
तभी एक सेवक ने आकर कहा- महाराज महल में आग लग गई है.
जनक ने सेवक की बात सुनी और लापरवाही से टाल दी जैसे साधारण सी बात इस इतना क्या बल देना. वह उपदेश देने में लगे रहे.
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