परशुराम कथा शृंखला किसी कारणवश रूक गई थी. हमने उसे पुनः आरंभ कर दिया है. आपको अभी एप्प में इस शृंखला की छठी कथा के बाद की कथा ही नजर आती होगी. उससे पहले की कथाएं, प्रभु शरणम् की वेबसाइट www.prabhusharnam.com पर पढ़ सकते हैं.
पिछली कथा से आगे…
कार्तवीर्य के ये सिर्फ पांच पुत्र पुत्र शूर, वृषास्य, वृष, शूरसेन और जयध्वज बचे. वे जान बचाकर जंगल में भागे. जब परशुराम युद्धभूमि से चले गए तो वे सब बाहर निकले.
उनके मन में ऐसा भय था कि वे अपने महल नहीं गए. अपने पिता द्वारा संरक्षित एक ब्राह्मण की कुटि में गए और वहीं कुछ दिन छिपकर रहे. सहस्त्रभुजाओं वाले उनके पराक्रमी पिता को एक तपस्वी ने कैसे मार दिया, यह बात कौंध रही थी.
उस ब्राह्मण ने शंका का निवारण किया- एक बार अग्निदेव ने तुम्हारे पिता से भोजन कराने का आग्रह किया. सहस्त्रबाहु भगवान दत्तात्रेय द्वारा प्राप्त शक्तियों से रावण जैसे पराक्रमी को जीतने के बाद बहुत घमंडी हो गए थे.
उन्होंने अग्निदेव से कहा- आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं. पृथ्वी पर सभी ओर मेरा ही तो राज है. तब अग्निदेव ने वनों को जलाकर भोजन शुरू कर दिया. एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे. वे आश्रम सहित जल मरे.
यही नहीं अग्नि में गुरु वशिष्ठ का आश्रम भी खाक हो गया. क्रोधित होकर ऋषि ने अग्निदेव से कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि राजा सहस्त्रबाहु ने उन्हें ये वन आहार के लिए दान कर दिए हैं. मैं तो अपने दान में से आहार ग्रहण कर रहा हूं.
वशिष्ठ को इस बात का क्रोध हुआ कि घमंड में भरे राजा ने दान से पहले विचार न किया कि उसके किस भाग में प्रजा निवास कर रही है. सहस्त्रबाहु अब प्रजापालक नहीं रहा तो ऐसे राजा को कोई औचित्य नहीं.
वशिष्ठ ने शाप दिया- श्रीहरि परशुराम रूप में अवतार लेंगे और सहस्त्रबाहु समेत सभी अहंकारी राजाओं का सर्वनाश करेंगे. भार्गव कुल में जमदग्नि के पांचवें पुत्र परशुराम श्रीहरि के अंश हैं. इनसे प्रतिशोध का विचार भी न करना.
परशुराम, पिता के आश्रम लौटे. उन्होंने अपने शिवलोक गमन, पुष्कर प्रवास, कार्तवीर्य वध एवं गणेशजी से संघर्ष की कथा कही तो जमदग्नि ने फिर समझाया कि तुमने बड़ा पाप किया है. तपस्वियों को क्षमा ही शोभती है, हिंसा नहीं.
राजा का वध किसी ब्रह्महत्या से भी बढ़कर दोष है. जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो. पिता की आज्ञा मान परशुराम तीर्थयात्रा और तप के लिये निकल गए.
वे तीर्थों का स्नान दर्शन करते हुये महेंद्र नामक पर्वत पर पहुंचे. कंद मूल आदि खाकर आत्मशुद्धि हेतु भीषण तप करते रहे. यह तप बारह बरस तक चला. परशुराम के तप के लिए जाने का समाचार पाकर सहस्त्रबाहु के पुत्र निर्भय होकर लौटे.
उन्होंने शीघ्र ही अपना राजपाट जमा लिया. एक दिन शूरसेन का मन शिकार खेलने को हुआ. अगले दिन ही वह भाइयों के साथ वन में शिकार खेलने पहुंच गया. उसके साथ बड़ी सेना भी थी. शिकार के बाद और प्यास लगने पर वे नर्मदा की ओर गये.
नर्मदा में जल विहार के बाद लौटते उन्हें एक सुंदर आश्रम दिखा. वह आश्रम जमदग्नि का था. पुरानी बातें ताजा होने लगीं. पहले तो वे भयभीत हुए फिर उन्हें पिता की मृत्यु और परशुराम की क्रूरता का ध्यान आया तो बदले की आग जग गई.
सबने विचार किया कि इस समय परशुराम न होंगे. यही सही अवसर है अपने पिता की मौत के प्रतिशोध का. पांचो भाइयों ने यह तय किया कि अपने पिता की मौत का बदला परशुराम के पिता की हत्या से लेंगे.
हाथों में तलवार लेकर आश्रम में घुसे और थोड़ी ही देर में निरपराध लोगों के रक्त की नदी बहा दी. वे जमदग्नि ऋषि के समीप पहुंच गये. एक ने ध्यान में लीन जमदग्नि का सिर काट ड़ाला और अपने साथ लेकर चला गया.
रक्तपात शांत हुआ तो आसपास के आश्रमों से ऋषि-मुनि आए. जमदग्नि के बेटों को बुलाया गया. बिना शीश का जमदग्नि का धड़ पड़ा हुआ था. परशुराम को इसकी सूचना कैसे हुई. उसके बाद क्या हुआ, यह कथा अगले भाग में.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश