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एक महात्माजी भक्ति कथाएं सुनाते थे. उनका अंदाज बड़ा सुंदर था औऱ वाणी में ओज था इसलिए उनका प्रवचन सुनने वालों की बड़ी भीड़ होती. महात्माजी की ख्याति दूर-दूर तक हो गई.

एक सेठजी के कानों तक भी उनकी ख्याति पहुंची. सेठ नगर के बड़े रईस थे.

दान-धर्म-सत्संग प्रवचन आदि में गहरी रूचि रखते थे इसलिए उन्होंने सोचा कि जरा इन महात्माजी के प्रवचन भी सुनकर देखें जाएं.

सेठ ने सत्संग-प्रवचन में जाने का निश्चय किया लेकिन दैवयोग से उनके मन में एक विचार आया. उन्होंने सोचा कि आजकल बहुत सारे लोग संत का चोला तो ओठ लेते हैं लेकिन मन से सांसारिक ही रह जाते हैं.

संतई तो दिखावे की होती है, सारी कुटिलता वैसे ही रह जाती है जस की तस. मोह-माया उनसे छूटती नहीं. कहीं ये भी उसी श्रेणी के न हों! इनको तो परखना होगा.

सेठ ने अपने अच्छे कपड़े उतारे मैले-कुचैले कपड़े पहनकर ऐसे दिखने लगे जैसे कोई मेहनतकश मजदूर हो, काम से छूटकर सीधा सत्संग में आ गया हो.

इसी वेश-भूषा में सेठजी प्रतिदिन प्रवचन में आकर एक कोने में बैठ जाते और चुपचाप प्रवचन सुनते. प्रवचन से वह आनंदित हो रहे थे.

एक व्पक्तिजो सत्संग में नियमित रूप से आया करता था, वह कई दिनों के बाद अचानक आया.

महात्माजी की नजर उसपर पड़ी तो उन्होंने पूछा- तुम पहले तो नियमित आया करते थे. आज काफी दिनों बाद दिखे हो, कहां रहे इतने दिन? सब कुशल-मंगल तो है?

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