कल की पोस्ट में पढ़ा कि इंद्र ने देवगुरू विश्वरूप को यज्ञ में असुरों के लिए हविष डालते देखा तो क्रोधित होकर यज्ञवेदी पर ही उनका वध कर दिया.
इंद्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा. अपने पुत्र विश्वरूप की हत्या से आहत त्वष्टा मुनि ने इंद्र को दंडित करने के लिए यज्ञकुंड से एक भयंकर असुर वृतासुर को प्रकट किया. अब आगे
इंद्र ने एक वर्ष तक ब्रह्महत्या का पाप का कष्ट झेला. इंद्र की शक्ति क्षीण हो गई थी. फिर ऋषियों की सलाह पर इंद्र ने अपना दोष चार हिस्से में विभक्त करके चार प्राणियों को दे दिया.
पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री ने हत्यादोष का एक-एक हिस्सा स्वीकार किया बदले में चारों को एक-एक वरदान मिला.
पृथ्वी ने पाप का एक चौथाई ग्रहण किया जिसके कारण उसका एक बड़ा हिस्सा बंजर हो गया. बदले में पृथ्वी को वरदान मिला कि उसमें होने वाला कोई भी गडढ़ा स्वतः भर जाएगा.
ब्रह्महत्या का चौथाई दोष लेने के एवज में वृक्षों को वरदान मिला कि उनका कोई भी हिस्सा कटने के बाद पुनः जम जाएगा. दोष के कारण वृक्षों का रस मानव के लिए वर्जित हो गया.
जल को वरदान मिला कि वह जितना खर्च होगा उतना वापस मिल जाएगा. हत्या दोष के फलस्वरूप उसमें फेन या झाग बनता है.
ब्रह्महत्या का चौथाई दोष स्वीकारने के एवज में स्त्रियों को वरदान मिला कि वे हमेशा पुरुष से सहवास में समर्थ रहेंगी. दोष के कारण वे रजस्वला होती हैं और उस दौरान उन्हें पुरुष छूने से भी बचेंगे.
ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति पाकर इंद्र लौटे और उन्होंने अपनी सेना को जमा की फिर वृतासुर से युद्ध के लिए चल पड़े.
देवसेना के प्रहार से माली, सुमाली, नामची, ऋषभासुर आदि सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध को आई असुर सेना के पैर उखड़ने लगे.
असुर भागने लगे तब वृतासुर ने उन्हें वापस बुलाने का प्रयास किया लेकिन असुर नहीं रूके, भागते रहे. वृतासुर ने अकेले ही देवों को ललकारा.
ऐरावत पर बैठे इंद्र ने वृतासुर पर गदा से प्रहार किया. असुर ने भी पलटवार करते हुए ऐरावत को गदा मारी जिससे वह लड़खड़ा गया.
वृतासुर ने इंद्र को ललकारा- पापी इंद्र, तुमने अधर्मपूर्वक मेरे भाई की ह्त्या तब की जब वह तुम्हारे गुरुस्थान पर विराजमान होकर यज्ञ कर रहे थे. तुम्हें इस पाप के लिए मैं दंडित करूंगा.
इंद्र तुम्हें सत्ता ऐसी प्रिय है कि अपना पद बचाने के लिए उसी महर्षि के प्राण लेकर उसके शव की हड्डियों से वज्र बनाते हो जिसका तुमने कभी अपमान किया था.
मैं मृत्यु से नहीं डरता. तुम्हारे पास नारायण का कवच है लेकिन मैं तो नारायण को अपने हृदय में बसाता हूं. मरकर मैं भौतिक शरीर से मुक्ति पाकर प्रभु चरणों में पहुंच जाउंगा.
वज्र का प्रयोग करो. तुम मुझे अपने सामर्थ्य से नहीं, महर्षि दधीचि के तप और श्रीहरि के कवच के कारण ही जीत पाओगे. तुम पर दया आती है. भय त्यागकर युद्ध करो.
इंद्र वृतासुर की बातों को सुनकर लज्जित महसूस कर रहे थे. वृतासुर कुछ समय के लिए युद्ध भूलकर नारायण की आराधना करने लगा.
दरअसल वृतासुर पूर्व जन्म में श्रीहरि के भक्त राजा चित्रकेतु थे जो पार्वतीजी के शाप से असुर कुल में आए थे. इसलिए असुर होने के बावजूद वृतासुर नीति परायण था.
वृतासुर ने इंद्र के साथ भयंकर युद्ध किया. उसके प्रहार से इंद्र के हाथ से वज्र छूटकर वृतासुर के पैरों के पास गिर गया. वह चाहता तो उस वज्र से इंद्र का अनिष्ट कर सकता था लेकिन उसने इंद्र को वज्र उठाकर युद्ध करने को कहा.
देवराज के लिए यह बड़े लज्जा की बात थी कि वह शत्रु की दया पर शत्रु के सामने झुकें. इंद्र नहीं झुके. वृतासुर ने कहा- इंद्र तुम्हें नारायण ने एक विशेष कर्म सौंपा है.
अपमान की बात को भूलकर नारायण के आदेश का ध्यान करो. उठाओ वज्र और मुझ पर प्रहार करो. इंद्र ने वज्र लिया और उसके प्रहार से वृतासुर की भुजाएं काट दीं.
तब वृतासुर ने इंद्र को ऐरावत समेत निगल लिया लेकिन नारायण कवच के कारण उनका कोई अनिष्ट न हुआ. वज्र से वृतासुर का पेट चीरकर इंद्र ऐरावत समेत निकल आए.
इंद्र ने विश्वरूप की हत्या के दोष से किसी तरह मुक्ति पाई थी. अब वृतासुर की हत्या का भी दोष मंडरा रहा था जिससे मुक्ति के लिए उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया.
कल पढ़िए वृतासुर के पूर्वजन्म और शाप की कथा
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्