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नारदजी बोले- प्रभु मुनि रूप में तो राजकुमारी मुझे स्वीकारने से रही. इसलिए आप मुझे हरि रूप दे दीजिए. नारदजी मोह तथा काम में अंधे हो गए थे. वह स्वयंवर में पहुंचने के लिए इतने उतावले थे कि आइने में शक्ल भी नहीं देखी कि आखिर प्रभु ने उन्हें रूप दिया कैसा है? उन्हें तो विश्वास था कि वह स्वयं श्रीहरि की छाया बन चुके हैं.
हरि का एक अर्थ वानर भी होता है. नारद ने हरि रूप मांगा तो प्रभु ने उन्हें वानर वाला हरि रूप दे दिया. वानर की शक्ल में नारद स्वयंवर में पहुंचे. राजकुमारी जयमाला लेकर स्वयंवर सभा में आई. जैसे ही नारद पर उसकी नजर पड़ी वह हंसने लगी. स्वयं भगवान विष्णु भी राजा के रूप में उस सभा में बैठे थे.
श्रीमती ने माला भगवान के गले में डाल दी. प्रभु उसे लेकर चले गए. इधर नारदजी बड़े दुखी थे. नारदजी को श्रीहरि के दो सेवक मिले. उन्होंने नारदजी से पूछा कि आपने वानर का वेश क्यों धारण कर रखा है.
नारद नाराज होने लगे तो सेवकों ने कहा कि आइने में स्वयं अपना चेहरा देख लें. उन्होंने तालाब के साफ जल में झांका तो बंदर की शक्ल देखकर आग-बबूले हो गए.
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