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श्रीकृष्ण की परम उपासक कर्मबाईजी भगवान को बाल भाव से भजती थीं. बालरूप ठाकुरजी से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे बिहारीजी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हैं.

एक दिन उनकी इच्छा हुई कि बिहारीजी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाउं. उन्होंने प्रभु से अपनी इच्छा से बता दी.

भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं. गोपाल बोले- जो भी बनाया हो वही खिला दो. भूख लगी है.

कर्माबाईजी ने खिचड़ी बनाई थी. ठाकुरजी को खिचड़ी दी और उन्होंने बड़े चाव से खाया. कर्माबाईजी पंखा झलने लगीं कि कहीं गरम खिचड़ी से ठाकुरजी का मुंह न जल जाए.

संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को भक्त एक माता की तरह पंखा कर रही हैं. भगवान भक्त की भावना में विभोर हो गए.

भक्तवत्सल भगवान ने कहा- मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी. मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करो. मैं तो यही खाउंगा.

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