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अंगद के नेतृत्व में सीताजी को खोजने निकली वानरों की टोली को जटायु के भाई गिद्धराज संपाति ने बताया कि रावण देवी को सुमद्र पार स्थित लंका ले गया है.

संपाति ने लंका की दिशा और रावण के महल की जानकारी दी. लेकिन 100 योजन लंबे समुद्र को लांघा कैसे जाए! अंगद ने सभी से उनकी छलांग लगाने की क्षमता पूछी.

कोई 30 योजन तक तो कोई 50 योजन तक छलांग लगाने में समर्थ था. रीक्षराज जामवंत ने बताया कि वह 90 योजन तक की छलांग लगा सकते हैं.

अंगद ने कहा- मैं 100 योजन तक छलांग लगाकर समुद्र पार तो कर लूंगा, लेकिन लौट पाऊंगा कि नहीं, इसमें संशय है. बिना लौटे तो बात बनने वाली नहीं थी.

तब जामवंत ने हनुमानजी को उनके पराक्रम का स्मरण कराया. जामवंत बोले- हनुमानजी आपने बचपन में छलांग लगाकर आकाश में स्थित सूर्य को पकड़ लिया था, फिर 100 योजन का समुद्र क्या है?

जामवंत द्वारा अपनी शक्तियों का स्मरण कराए जाने के बाद हनुमानजी समुद्र लांघने के लिए उड़े.

उन्हें पवन वेग से लंका की ओर बढ़ता देख देवताओं ने सोचा कि यह रावण जैसे बलशाली की नगरी में जा रहे हैं. इसलिए इनके बल-बुद्धि की विशेष परीक्षा करनी आवश्यक है.

देवगण समुद्र में निवास करने वाली नागों की माता सुरसा के पास गए उनसे बजरंग बली के बल-बुद्धि की परीक्षा लेने का निवेदन किया.

सुरसा राक्षसी का रूप धारण कर हनुमानजी के सामने जा खड़ी हुई और बोली- सागर के इस भाग से जो भी जीव गुजरे मैं उसे खा सकती हूं. ऐसी व्यवस्था देवताओं ने मेरे लिए की है.

आज देवताओं ने मेरे आहार के रूप में तुम्हें भेजा है. मैं तुम्हें खा जाउंगी. ऐसा कहकर सुरसा ने हनुमानजी को दबोचना चाहा.

हनुमानजी ने कहा-माता! इस समय मैं श्रीराम के कार्य से जा रहा हूँ. कार्य पूरा करके मुझे लौट आने दो. उसके बाद मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे मुँह में समा जाऊंगा.

हनुमानजी ने सुरसा से बहुत विनती की लेकिन वह मानने को तैयार न थी. हनुमान ने अपना आकार कई सौ गुना बढ़ाकर सुरसा से कहा- लो मुझे अपना आहार बनाओ.

सुरसा ने भी अपना मुंह खोला तो वह हनुमानजी के आकार से बड़ा हो गया. हनुमानजी जितना आकार बढ़ाते, सुरसा उससे बड़ा मुंह कर लेती.

हनुमानजी समझ गए कि ऐसे तो बात नहीं बनने वाली. उन्होंने अचानक अपना आकार बहुत छोटा किया और सुरसा के मुँह में प्रवेश करके तुरंत बाहर आ गए.

सुरसा बजरंगबली की इस चतुराई से प्रसन्न हो गई. वह अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुईं और हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी सफलता की कामना की.

समुद्र ने रामभक्त को बिना विश्राम लगातार उड़ते देखा तो उसने अपने भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा कि थोड़ी देर के लिए ऊपर उठ जाए ताकि उसकी चोटी पर बैठकर हनुमानजी थकान दूर कर लें.

समुद्र के आदेश से प्रसन्न मैनाक रामभक्त की सेवा का पुण्य कमाने के लिए हनुमानजी के पास गया अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम का निवेदन किया.

हनुमानजी मैनाक से बोले-श्रीराम का कार्य पूरा किए बिना विश्राम करने का कोई प्रश्र ही नहीं उठता. उन्होंने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया और आगे चल दिए.

लंका पहुंचते ही हनुमानजी का सामना लंका की रक्षक लंकिनी से हुआ. सुंदरकांड के ये सब प्रसंग भक्ति रस से सराबोर हैं.

सुंदरकांड में हनुमानजी की अपरिमित शक्तियों का वर्णन है और वे प्रभु के संकटमोचक बनते हैं.

कहते हैं जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में सुंदरकांड का एक बार भी पाठ न किया हो उसे तब तक मुक्ति नहीं मिलती जब तक वह इसे सुन न ले.

।।सियापति रामचंद्र की जय।। ।।पवनसुत हनुमान की जय।।

संकलन व संपादन- प्रभु शरणम्

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