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सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥
भावार्थ:- शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं दंडवत होकर उन सबको प्रणाम करता हूं. हे मुनीश्वरों! आप सब मुझे अपना दास जानकर कृपा कीजिए.
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
भावार्थ: राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्रीरामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों की मैं वंदना करता हूं. उनकी कृपा हुई तो मैं निर्मल बुद्धि से युक्त हो सकता हूं.
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥5॥
भावार्थ: फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान् श्रीरघुनाथजी के सर्वसमर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूं.
दोहा :
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥
भावार्थ: जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न यानी एक हैं. उन श्रीसीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूं जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्
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