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रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥

भावार्थ: मैं श्रीशत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूं, जो बड़े वीर, सुशील और श्री भरतजी के अनुगामी हैं. मैं महावीर श्रीहनुमानजी की वंदना करता हूं, जिनके यश का श्रीरामचन्द्रजी ने स्वयं अपने श्रीमुख से बखान किया है.

सोरठा :
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥

भावार्थ:- मैं पवनसुत श्रीहनुमानजी की वंदना करता हूं, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की अथाह वृष्टि करने वाले बादल हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुषघारी श्रीरामजी का सदैव वास है.

चौपाई :
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥

भावार्थ: वानरराज सुग्रीवजी, रीछराज जाम्बवानजी, राक्षसराज विभीषणजी और युवराज अंगदजी आदि वीरों के सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूं, जिन्होंने पशु और राक्षस जैसे छोटे कुल में जन्म लेकर भी श्रीरामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया.

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥

भावार्थ:- पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्रीरामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्रीरामजी के निष्काम सेवक हैं.

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