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चौपाई :
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया.

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

भावार्थ:-भाइयों में सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूं, जिनके नियम और व्रत का बखान वर्णन से बाहर है तथा जिनका मन श्रीराम के चरणकमलों में भौंरे की तरह रमा हुआ है, कभी उन चरणों से अलग नहीं होता.

बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥3॥

भावार्थ: फिर मैं श्रीलक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूं, जो शीतल, सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं. श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका में लक्ष्मणजी का यश पताका को ऊँचा करके फहराने वाले ध्वजदंड के समान है.

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

भावार्थ:- जो हजार सिर वाले और हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें.

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