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तुलसीदास जी ने मानस के आरंभ में संतों और असंतों की भी वंदना की है. वह कहते हैं कि दोनों ब्रह्मा की रची सृष्टि के ही जीव हैं. दोनों की प्रवृति अलग है. विवेकशील को दोनों के बीच का अंतर करना आना चाहिए.
।।संत-असंत वंदना।।
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूं. देखें तो दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनके द्वारा दिए गए दुखों में कुछ अन्तर है.
संत के बिछुड़ते ही आपके शरीर से आनंद रूपी प्राण गायब हो जाते हैं और असंत अपनी संगति में दारुण दुःख देना आरंभ कर देते हैं. अर्थात् संत संगति का त्याग और असंत संगति की प्राप्ति दोनों की मृत्यु के समान दुःखदायी होती है.
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
भावार्थ:- संत और असंत दोनों ही जगत में एक साथ पैदा होते हैं लेकिन जैसे कीचड़ में एक साथ पैदा होने वाले कमल और जोंक की प्रवृति अलग-अलग होती है उसी तरह संत और असंत के गुण अलग-अलग होते हैं.
कमल दर्शन और स्पर्श दोनों से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है. साधु अमृत के समान है जिसकी संगति मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाली है.
असाधु मदिरा के समान है जो मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला है. अमृत और मदिरा दोनों समुद्र से उत्पन्न हुए हैं लेकिन एक शरीर में प्राण का संचार करने वाला तो दूसरा शरीर में विकार उत्पन्न करने वाला है.
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