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भरद्वाज ने राजा भरत का कुल आगे बढ़ाया. उसी कुल में आगे चलकर राजा रंतिदेव हुए. महाराज रंतिदेव ने आकाश के समान बिना उद्योग किए दैववश प्राप्त संपत्ति का उपभोग करते.
इस तरह उनकी संपत्ति समाप्त होती गई. उन्हें संग्रह पर यकीन न था. इसलिए संग्रह नहीं करते थे. आहार स्वरूप जो मिल जाता वह ग्रहण कर लेते नहीं मिलता तो उपवास कर लेते.
एक बार 48 दिनों तक उन्हें अन्न और जल नसीब न हुआ. उन्चासवें दिन उन्हें कुछ घीस खीर व हलवा तथा जल प्राप्त हुआ. 48 दिनों से भूखा-प्यासा राजा के परिवार को राहत मिला.
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