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राजा रैभ्य संतानहीन थे. उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया. यज्ञ के पुण्य से रैभ्य की पत्नी रानी रूक्मरेखा गर्भवती हुईं और समय आने एक उन्होंने एक परम सुंदर कन्या को जन्म दिया.

कन्या स्वर्ग के अप्सराओं के सौदंर्य को झुठलाने वाली थी. उसके जैसी कोई कन्या थी ही नहीं इसलिए उसका नाम रखा गया- एकावली. एकावली इतनी सुंदर और गुणी थी कि उसकी तुलना चंद्रमा की कलाओं से होती थी.

एकबार एकावली अपनी प्रिय सखी यशोवती के साथ गंगास्नान को गई. उसी समय कालकेतु नामक दैत्य उधर से गुजरा. कालकेतु ने गंधर्वों को परास्त किया था. देवता भी उससे नहीं उलझते थे.

कालकेतु ने एकावली को देखा तो उसे देखता ही रह गया. मोहित कालकेतु ने एकावली का उसकी सखी यशोवती के साथ ही हरण कर लिया. यशोवती माता जगदंबा की बड़ी भक्त थी. उसने जगदंबा के बीज मंत्र की साधना कर रखी थी.

कालकेतु के कारावास में उसने बीजमंत्रों का जप आरंभ कर दिया. यशोवती के एक महीने तक निरंतर साधना से देवी ने उसे स्वप्न में दर्शन दिया और मुक्ति का मार्ग सुझाया.

देवी ने कहा- कल तुम्हारे लिए बंदीगृह से निकलकर गंगातट पर जाने का मार्ग खुला मिलेगा. वहां तुम्हारी भेंट राजा एकवीर से होगी. वह मेरा भक्त है. तुम उसे जाकर स्वप्न की बात कहो. एकवीर कालकेतु का वध करके एकावली से विवाह करेगा.

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