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श्रीहरि दधीचि को समझाने का प्रयत्न कर रहे थे पर दधीचि तो शिवकृपा प्राप्तकर अभिमान में थे. वह कुछ सुनने को तैयार न थे और बोले- मेरे शरीर में आप समस्त ब्रह्मांड देख सकते हैं. आप मुझे मायाजाल में फंसाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं.

विष्णुजी को क्रोध आ गया. उन्होंने अनगिनत गणों की रचना की. गण दधीचि पर टूट पड़े लेकिन शिवजी के वरदान से उनकी रक्षा होती रही. गणों को भस्म कर दिया. अब श्रीहरि ने विष्णुमूर्ति प्रकट की और दधीचि को सबक देने का निर्णय किया.

दधीचि ने फिर से श्रीहरि को ललकारा और बोले- मुझ पर आपकी किसी माया का प्रभाव नहीं होगा. मैं शिवजी की शरण में हूं. आपके सभी प्रयास सब व्यर्थ जाएंगे. आप यहां से चले जाएं.

हे नारद! क्रुध श्रीहरि दधीचि का अनिष्ट करने जा ही रहे थे कि मैं क्षुव के साथ वहां प्रकट हुआ. मैंने श्रीहरि के मन में प्रेरणा दी और उन्हें शांत कराया. श्रीहरि ने दधीचि से खेद प्रकट किया.

क्षुव ने जब श्रीहरि को दधीचि के सामने विनम्र देखा तो उसका भ्रम मिट गया. उसने दधीचि से क्षमा मांगी और उन्हें श्रेष्ठ मानकर दंडवत किया. दधीचि ने क्षुव को क्षमा कर दिया लेकिन श्रीहरि और उनके सहायक देवों को क्षमा न किया.

दधीचि ने शाप दिया- श्रीविष्णु के सहायक बनकर मेरा अनिष्ट करने आए देवगणों और इसके साक्षी बने मुनिश्वरों, शिवजी के क्रोध की अग्नि में एक दिन तुम सब विष्णु के साथ-साथ शिवगणों से पराजित और अपमानित होगे.

हे पुत्र नारद! उस शिवभक्त का शाप खाली न जाए इसके लिए ही विष्णुजी उस यज्ञ में पहुंचे और शिवगण वीरभद्र को स्वयं अपने पराजय की विधि बताई.

(शिव पुराण रूद्र संहिता, सती खंड-2)

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