विवाह का बंधन, विवाह की रस्म इनके सृजन के पीछे शिवजी का ही योगदान माना जाता है। शिवजी के विवाह से पूर्व विवाह की विधिवत प्रक्रिया नहीं थी। देव-देवी आपस में वरण कर लेते थे। शिवजी ने यह सब सृष्टि की व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए किया।

ब्रह्मा ने जब सृष्टि का निर्माण किया, तो सब कुछ स्थिर था. किसी वस्तु में गति नहीं थी. यहां तक कि उस समय के प्राणियों में अपनी संख्या बढ़ाने यानी प्रजनन की क्षमता भी नहीं थी. जिसके कारण ब्रह्मा जी को बार बार स्वयं सृष्टि का निर्माण करना पड़ता था.

ब्रह्माजी को सृष्टि रचने का दायित्व दिया गया था. अनंतकाल तक अपना कार्य पूरा करने के बाद भी ब्रह्माजी संतुष्ट न थे. उन्हें अब भी कार्य पूरा होता न दिखता था. इस समस्या के निराकरण के लिए उन्होंने श्रीहरि विष्णुजी से परामर्श किया. विष्णुजी ने ब्रह्मा से कहा कि आप शिवजी को प्रसन्न कर इसका व्यवहारिक निदान पूछें. यदि संसार को आगे बढ़ाना है तो इस व्यवस्था से बात बनेगी इसकी संभावना कम ही है. कोई विकल्प खोजना होगा.

ब्रह्माजी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए बारह वर्षों का घोर तप किया. तप से शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने दर्शन दिए. शिवजी ने सारी समस्या के निदान का मार्ग बताया- मैथुनी सृष्टि की रचना करो. जीव अपने जैसा जीव स्वयं रचे इसकी व्यवस्था करो. नारी का निर्माण करो. पुरुष और नारी के संयोग से सृष्टि आगे बढ़ेगी. ऐसी ही व्यवस्था सभी जीवों में करो.

शिवजी ने उन्हें अर्धनारीश्वर रूप में दर्शन देकर बताया कि नारी कैसी होगी. उसी कल्पना के आधार पर ब्रह्मा ने नारी रचा. स्त्री-पुरुष या नर-मादा के संयोग से सृष्टि बढ़ाने की नींव डाली गई. यह मैथुनी सृष्टि व्यवस्था कहलाई. ब्रह्माजी ने मनुष्य के रूप में सर्वश्रेष्ठ रचना की. इसलिए आवश्यक था कि उसकी मैथुनी सृष्टि व्यवस्था अन्य जीवों से अलग हो. श्रेष्ठ होने के लिए अलग होना अनिवार्य समझा गया.

यहीं से विवाह की परंपरा का विचार आया. प्रथम विवाह भगवान शिव का ही कराया जाए ताकि देवतागण और मनुष्य उसका अनुकरण कर सकें.

शिव विवाह की योजना बनाई गई. ब्रह्मा ने प्रजापति दक्ष को आदेश दिया कि अपनी सर्वगुणसंपन्न पुत्री सती का विवाह सदाशिव के साथ करें. दक्ष ने ब्रह्मा के आदेश पर शिव-सती विवाह की तैयारी की. इस प्रकार भगवान शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था.

विवाह की परंपरा तो बन गई अब दांपत्य जीवन के नियम भी स्थापित करने थे. इसके लिए पुनः लीला हुई. शिव और सती का विवाह फिर सती का दाह यह सब लीलावश हुआ था. इसके पीछे मानव सभ्यता को दांपत्य जीवन के गुर सिखाने का लक्ष्य था. इस लीला के लिए दक्ष को चुना गया.

दक्ष को भगवान ने मोहित किया. शिव जिनके दामाद हों उस दक्ष के लिए इससे ज्यादा सौभाग्य की बात क्या हो सकती है. पर यदि दामाद-ससुर, पुत्री-पिता के बीच के आचरण को परिभाषित न किया जाता तो दांपत्य जीवन का सही रहस्य कैसे पता चलता. यह बड़ी गूढ़ बात है इसे सही रूप में समझा ही नहीं जाता है. लोग इसे बस दामाद और ससुर का विवाद समझते हैं. इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए पढें- (शिव-सती की दाह लीलाः किसके लिए भस्म हुईं देवी सती)

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एक बार दक्ष प्रजापति देव समूह में पहुंचे, तो सभी उन्हें देखकर उठ खड़े हुए.ब्रह्माजी और भगवान शिव बैठे ही रहे। दक्ष को प्रजापति बनाया गया था. वह इस अहंकार से भरे थे. ब्रह्मा तो पिता है इसलिए उनके न खड़े होने को वह सहन कर गए. पर शिव तो मेरे दामाद हैं. देवाधिदेव हैं तो क्या हुआ, हैं तो मेरे दामाद फिर भी यह निरादर.

दक्ष तिलमिला उठे.

उन्होंने कहा- सांसारिक रूप से आप मेरे जामाता हैं. मेरा सम्मान करना आपका धर्म है लेकिन आप आचरण से विहीन हैं. मैंने पिताजी के सुझाव पर आपसे पुत्री ब्याह दी पर बड़ी भूल हुई. अयोग्य को मैंने कन्या दे दी.

दक्ष ने घमंड में शाप दिया-  हे शिव अब आपको इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले.

शाप देकर क्रोध में पैर पटकते वहां से चले गये.

यह देखकर नंदी ने दक्ष यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हंसे थे, शाप दे दिया- जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें. धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर संसार में मांगकर ही पेट भरेंगे.

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यह सुनकर उस यज्ञ में मुख्य आचार्य भृगु ने भी पलटकर शाप दिया- जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों. जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों. तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं.

जैसे कर्मकांडी ब्राह्मण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आईं, ये शाप उनका संकेत करते हैं.

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