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इस वरदान को प्राप्तकर दिति को बहुत प्रसन्नता हुई. समय आने पर दिति में गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे.

उन्हें पुत्रों के संबंध में पति कश्यप के शाप का स्मरण था. वह जानती थीं कि गर्भ में आई संतान अत्याचारी और नारायण की शत्रु होंगी. यह सोचकर उन्होंने अपने तेज से पुत्रों को 100 वर्षों तक गर्भ से बाहर आने ही न दिया.

दिति द्वारा इतने समय तक गर्भ को रोकने से संसार में कई अनहोनी घटनाएं घटने लगीं. चारों ओर भयंकर अंधकार हो गया. पृथ्वी का संतुलन बिगड़ने लगा. अपशकुन होने लगे. इस अव्यवस्था से घबराए देवतागण रक्षा की गुहार लिए ब्रह्माजी की शरण में भागे. ब्रह्माजी ने उन्हें कारण बताया तो देवताओं ने इसका निदान करने की विनती की.

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अंततः ब्रह्माजी दिति के पास गए और उसे बहुत समझाया कि वह होनी को बदलने का व्यर्थ प्रयास कर रही हैं.

ब्रह्माजी के समझाने-बुझाने पर दिति ने अपनी संतानों को गर्भ से मुक्त किया. उनकी संतानें हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु हुए. हिरण्याक्ष का संहार करने के लिए भगवान ने वाराह अवतार लिया और हिरण्यकश्यपु से अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए नृसिंह अवतार लिया.

संतान प्राप्ति को एक यज्ञ का दर्जा शास्त्रों में दिया गया है. संतान प्राप्ति से मिलन के लिए कुछ नियम भी निर्धारित किए गए हैं. ये नियम हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसे ही नहीं स्थापित कर दिए, इसके पीछे गहन शोध भी था.

कामवासना मात्र की पूर्ति से ठहरे गर्भ से उत्पन्न संतान में विकार आते ही हैं. यदि गर्भ ठहर भी जाए तो उसे मारना बहुत बड़ा दोष माना गया है. इससे आपकी आने वाली संतानों पर भी बाधा हो सकती है. इसे प्राणी हत्या के बराबर माना गया है.

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आज के युग में बहुत से ऐसे उपाय हैं जिन्हें समय रहते कर लिया जाए तो इन अपराधों से बचाव हो सकता है. संतान प्राप्ति यज्ञ पर शास्त्रों में क्या कहा गया है?

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