दान की महिमा बताती कहानी है एक राजा और उसके परिवार की. आपने भागवत सुनी हो तो आचार्यगण इस कथा को बहुत रस के साथ सुनाते हैं. परोपकारी और दयालु के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं. कुछ भी अप्राप्य नहीं. उसे सबकुछ प्रदान करने के लिए स्वयं भगवान लालायित रहते हैं.
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रंतिदेव को वरदान देने एक साथ त्रिदेव चले आए थे. तीनों लालायित थे कि क्या वरदान मांग लें रंतिदेव वह प्रदान कर दें. रंतिदेव इंद्रपद भी मांग लेते तो उन्हें तत्काल मिल जाता पर रंतिदेव ने मांगा क्या? पढ़िए
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भरद्वाज ने राजा भरत का कुल आगे बढ़ाया. उसी कुल में आगे चलकर राजा रंतिदेव हुए. महाराज रंतिदेव बिना परिश्रम किए दैववश प्राप्त संपत्ति का उपभोग किया करते थे. इस तरह उनकी संपत्ति समाप्त होती गई. उन्हें संग्रह पर यकीन न था इसलिए संग्रह नहीं करते थे. आहार स्वरूप जो मिल जाता वह ग्रहण कर लेते नहीं मिलता तो उपवास कर लेते.
एक बार 48 दिनों तक उन्हें अन्न और जल नसीब न हुआ. उन्चासवें दिन उन्हें कुछ घीस की खीर व हलवा तथा जल प्राप्त हुआ. 48 दिनों से भूखे-प्यासे राजा के परिवार को राहत मिली.
रंतिदेव का परिवार उस अन्न को ग्रहण करने की तैयारी कर ही रहा था कि उसी समय एक ब्राह्मण चले आए. रंतिदेव ने उस भोजन में से ब्राह्मण को भी खिलाया. बचे हुए अन्न को परिवार ने आपस में बांट लिया.
वे लोग खाने बैठे ही थे कि तभी एक शूद्र आया और उसने प्राणरक्षा के लिए अन्न मांगा.
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