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कंस ने नवजात शिशुओं की हत्या करने के लिए पूतना को भेजा था. वह घूम-घूमकर बच्चों की हत्या कर रही थी. पूतना अपनी इच्छा से रूप बदलती थी. वह अत्यंत सुंदर स्त्री का रूप धर के नंदबाबा के घर पहुंची. श्रीकृष्ण आंगन में थे.

भगवान ने उसकी नीयत जान ली तो चुपचाप आंखें मूंदे रहे. पूतना ने यशोदाजी से बालक को मांग लिया और गोद में रखकर स्नेह करने लगी. यशोदाजी ने सोचा गांव में ही किसी की कोई रिश्तेदार आई है. बच्चे को दुलार करना चाहती है तो क्यों रोकना! सो बालक श्रीकृष्ण को दे दिया उसे.

पूतना ने भगवान को देखा, भगवान ने भी पूतना को देखा. दोनों की दृष्टि मिली तो भगवान ने इस भाव में देखा जैसे उससे पूछ रहे हों कि कहां थी अभी तक माता? तुम्हारी प्रतीक्षा में ही अब तक दुधमुंहा बना हुआ हूं.

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पूतना के भाव ऐसे हैं जैसे वह कह रही हो- मैंने अनंत वर्ष की प्रतीक्षा की है आपके लिए आप बस इतनी प्रतीक्षा से अधीर हो गए. संतोष है कि इस प्रतीक्षा का मुझे मनोवांछित फल मिल रहा है.

भगवान ने उसे आश्वस्त किया- माता तुम्हारी प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हो गई है. मैंने तुम्हें वचन दिया था कि तुम्हारे स्तनों से दूध अवश्य पीउंगा माता. तो हे माता मैं तुम्हारी मनोकामना आज अवश्य पूरी कर दूंगा.

भगवान ने उसके बाद झट से अपनी माया समेट ली. उनका कार्य पूरा हो चुका था. माता के दूध तभी उतरता है जब वह ममत्व भाव में आए अन्यथा नहीं उतरता. अगर पूतना हत्या के ही भाव से रहती तो भला दूध कैसे उतरता, और भगवान ने तो उसे अनगिनत वर्ष पूर्व ही वचन दिया था कि वह उसके स्तनों से दूध अवश्य पीएंगे?

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