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भिक्षु ने लकड़ियां चुनकर भोजन बनाने का इरादा छोड़ा. एक वीरान स्थान पर डेरा जमाया और यह सोचकर बैठ गया कि ईश्वर मेरे लिए भी भोजन की व्यवस्था करेंगे.
पहला दिन बीता. कोई वहां नहीं आया. दूसरे दिन भी कुछ लोग उधर से गुजरे पर भिक्षु की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया. कई दिन बीत गए. बिना कुछ खाए-पीये वह कमजोर होता जा रहा था.
धीरे-धीरे उसकी रही सही ताकत भी खत्म हो गयी. चलने-फिरने लायक भी नहीं रहा. मरे हुए इंसान की तरह शक्तिहीन होकर पड़ा था. तभी एक महात्मा उधर से गुजरे. उन्होंने भिक्षु की दुर्दशा देखी तो उसके पास चले गए.
भिक्षु ने सारी कहानी महात्माजी को सुनाई और बोला- भगवान इतने निर्दयी कैसे हो सकते हैं, क्या ईश्वर का नाम लेने वाले व्यक्ति को इस हालत में पहुंचा देना पाप नहीं है?
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