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एक दिन गणिका बोली- पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है. यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं. आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं.

पंडितजी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी.

स्वर्णमुद्रा का नाम सुनकर पंडितजी विचारने लगे. पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं.

पंडितजी ने अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए. उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा. बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे.

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