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वरदान के अनुसार विनता ने भी संतान रूप में दो अंडे जन्मे पर उनमें से बच्चे नहीं निकले. वह अंडे से संतान के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगी. कद्रू के बच्चों को देख विनता को भी संतान की ललक लगती पर वह मन मसोस कर रह जाती.
आखिर एक दिन विनता का धैर्य जवाब दे गया. उसने अपने ही हाथों से एक अंडा फोड़ डाला. उस अंड़े से जो बच्चा निकला वह ऊपरी आधे शरीर से तो हृष्ट पुष्ट हो चुका था पर उसके नीचे का आधा शरीर अभी अविकसित और कमजोर था.
नवजात शिशु अपनी मां के इस कृत्य पर बहुत क्रोधित हुआ. उसने अपनी माता विनता को श्राप दिया कि तूने लोभ और डाहवश मेरे अधूरे शरीर को ही निकाल लिया इसलिए तू जिससे डाह करती है अपनी उसी सौत की पाँच सौ वर्ष तक दासी रहेगी.
विनता बहुत घबरायी और उसने श्राप मुक्ति का उपाय पूछा. शिशु बोला- दूसरा बालक बलवान और तेजस्वी होगा. चाहे तो पाँच सौ वर्ष तक प्रतीक्षा कर. वही बालक तुझे इस श्राप से मुक्त करेगा.
इस प्रकार शाप देकर वह बालक आकाश में उड़ गया और सूर्य के रथ का सारथी अरूण बन गया. भगवान सूर्य के तेज के आगे कुछ भी नहीं दिखता परंतु सूर्योदय से ठीक पहले भोर की जो लालिमा है वह उसी बालक की झलक है.
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