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महर्षि ने कहा- पुत्र ब्रह्मदेव न तो भूले न ही कोई दंड दिया. अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना में कोई भूल होने या दंड का प्रश्न ही नहीं है.  तुमने मानव के जिस लक्षण को देखा उसके लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है. वत्स! मनुष्य को प्राकृतिक नियमों की अनदेखी या उल्लंघन के कारण बीमारी के रूप में दंड मिलता है. यह दंड उसके अपराध के अनुसार कम-ज्यादा हो सकता है.

मनुष्य के अलावा दूसरे जीवों में प्रकृति का उल्लंघन करने जितनी समझदारी, चालाकी या नासमझी नहीं है इसलिए वे प्रकृति के अनुरूप जीते हैं, निरोग हैं. परंतु जब कभी उनसे भी भूल होती है, वे भी अस्वस्थ होते हैं पर शरीर द्वारा जब भी रोग का संकेत उन्हें मिलता है, वे अपनी मर्यादा में आ जाते हैं और जल्दी ही ठीक हो जाते हैं.

महर्षि ने आगे कहा- शाकुंतल! चिकित्सालयों और कुशल चिकित्सकों की संख्या कितनी भी बढा दी जाए, जब तक मनुष्य संयम से, मर्यादा से दूर रहेगा, उसे रोगों से मुक्ति नहीं मिलेगी. जब तक हर मानव प्रकृति से छेड़छाड़ बंद नहीं करता, संयम से जीना नहीं सिखता यही होगा.

उसे संयम और प्रकृति प्रेमी होने की आवश्यकता है. तभी उसे रोग और दुःखों से नहीं बचाया जा सकता है.

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