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अत: तुम गृहस्थ आश्रम स्वीकार करो तथा विवाह करके संतान उत्पन्न करो. अन्यथा तुम्हें इस कार्य को पूरा करने के लिए फिर जन्म ही नहीं लेना पड़ेगा बल्कि जन्म जन्मान्तर तक कष्ट उठाना पड़ेगा.
सांसारिकता की बात रुचि की समझ में न आई, उन्होंने कहा- पितरो! आप मुझे इस कर्म जाल में न फंसाएं. मैंने स्त्री-परिग्रह इसलिए नहीं किया क्योंकि ये ही दु:ख व पाप का कारण है. पुरुष को इंद्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए.
पितर बोले- जो कर्म आसक्ति रहित होकर किया जाता है, वह बंधन का कारण नहीं बनता. अपने सांसारिक कर्म का पालन करते हुए जो मनुष्य संयम करते हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है.
अत: हमारा कहना मानकर विधिपूर्वक स्त्री-परिग्रह करो. किसी कन्या का हाथ ग्रहण करने और विवाह कर लेने में ही समाज, संसार और तुम्हारी सब की सब प्रकार से भलाई है. इतना कहकर पितर अदृश्य हो गए.
पितरों के इस आदेश से रुचि बहुत असमंजस में पड़ गये, बहुत सोच-विचार के बाद अंत में उन्होंने अपनी उलझन को दूर किया और समझ में आया कि पितरों की बात ठीक ही है.
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