अष्टावक्र ने कहा- बन्दी! मैं ऋषि काहोड़ का पुत्र हूं. तुमने कुतर्कों से उन्हें पराजित कर जल-समाधि दे दी थी. मैं भी तुम्हें शर्त के अनुसार जल-समाधि दे सकता हूं, पर मैं वैसा करूँगा नहीं.
जीवन लेना सहज है, पर जीवन देना बड़ी बात है. ज्ञान मानवता के विकास के लिए होना चाहिए, न कि उसको नष्ट करने के लिए. मुझे यह वचन दो कि इस प्रकार गर्व में आकर किसी का जीवन नष्ट नहीं करोगे.
बन्दी का घमण्ड चूर-चूर हो गया था. जनक के चरणों में गिरकर बोला- मैं वरुण का पुत्र हूं. बारह वर्षों में पूर्ण होने वाले एक यज्ञ का अनुष्ठान मेरे पिता ने किया था.
उस यज्ञ के लिए जरूरी कुछ विद्वानों का चयन करके मैंने जल में डूबोकर वरुण लोक भेजा. अनुष्ठान पूर्ण हो चुका है. वे सभी विद्वान अब वापस आ रहे हैं. मैं अष्टावक्र को प्रणाम करता हूं जिनके कारण मेरे पिता से भेंट होगी.
उसी समय वरुण के यज्ञ में गए सभी ब्राह्मण राजा जनक के समीप प्रकट हुए. उसमें कहोड़ भी थे. अष्टावक्र अपने पिता के साथ दरबार से विदाई लेकर चल पड़े.
रास्ते में समंगा नदी पड़ी. कहोड़ ने अष्टावक्र से कहा- पुत्र तुम इस नदी में स्नान करो. अष्टावक्र स्नानकर बाहर निकले तो उनके सारे अंग ठीक हो गए थे. कहोड़ ने वरूण के यज्ञ से अर्जित पुण्यों के बल पर पुत्र को स्वस्थ कर दिया.
(विष्णु पुराण और महाभारत की कथा)
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्