श्वेतकेतु बोला- अष्टावक्र, तू यहां से हट. अपने पिता की गोद में मैं बैठूंगा. यह मेरे पिता हैं, तू अपने पिता की गोद में जाकर बैठ. अष्टावक्र तो उद्दालक को ही पिता मानता था.
उसे पहली बार पता चला कि उसके पिता नहीं हैं और अपनी मां से पिता के बारे में पूछने लगा. सुजाता को हारकर सब बताना पड़ा.
अष्टावक्र ने निश्चय किया कि पिता को छल से मारने वाले मूर्ख को सबक सिखाकर रहेगा. वह उद्दालक के पास पहुंचे और राजा जनक के दरबार में जाकर बन्दी से शास्त्रार्थ करने की आज्ञा मांगी.
महर्षि बोले- अभी तुम्हारी शिक्षा पूरी नहीं हुई है. तुम्हारे शरीर तथा आयु को देखते हुए तुम्हें जनक के दरबार में कोई घुसने भी न देगा, शास्त्रार्थ तो दूर की बात है. परंतु अष्टावक्र अडिग रहे.
अष्टावक्र मां तथा गुरु की आज्ञा लेकर चल पड़े. जब वह नगर में पहुंचे तो संयोगवश महाराजा जनक उसी राजमार्ग से आ रहे थे. राजा की सवारी के आगे चलने वाले नौकरों ने राह बनाने के लिए अष्टाव्रक को धकेल दिया.
अष्टावक्र बोले- मार्ग पर चलने की प्राथमिकता अन्धे, बहरे, स्त्री, अपंग, असहाय तथा भारवाही व्यक्तियों को दी जानी चाहिए. राजा को अपने लिए ऐसी प्रथम सुविधा नहीं लेनी चाहिए.
राजा जनक अष्टावक्र की बातें सुन लीं. उन्हें लगा कि यह बालक ठीक ही कह रहा है. उसे रास्ते से हटाये बिना वह एक किनारे से आगे बढ़ गए. अष्टावक्र दूसरे जनक के महल पर पहुंचे.
राजमहल के द्वार पर द्वारपाल ने उसे रोककर पूछा कि वह कौन है और क्यों अन्दर जाना चाहता है? अष्टावक्र ने अपना परिचय तथा आने का कारण बताया.
सुनकर द्वारपाल बोला- अभी तुम बालक हो. यज्ञ-वेदी पर वेद-पाठ करने की बजाय, किसी आचार्य के आश्रम में जाकर अध्ययन करो. अष्टावक्र ने ऊंची आवाज में कहना शुरू किया.