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रूक्मिणीजी ने श्रीकृष्ण को मन से पति स्वीकार लिया था. उन्होंने अपनी मंशा श्रीकृष्ण से प्रकट भी की थी. श्रीकृष्ण ने उन्हें पत्नी बनाने का वचन भी दिया था. किंतु रुक्मिणी के भाई रूक्मी की शिशुपाल से मित्रता थी.

इसलिए वह अपने मित्र के हत्यारे से अपनी बहन का विवाह नहीं करना चाहता था. उसने श्रीकृष्ण को स्वयंवर में निमंत्रण ही नहीं दिया. तो बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण आए और रूक्मिणी का हरण कर लिया.

रूक्मी ने श्रीकृष्ण को अपने मित्र राजाओं की सहायता से घेर लिया और युद्ध किया. भगवान और बलरामजी ने सबको पराजित कर बंदी बना लिया. श्रीकृष्ण ने रूक्मि को पकड़ लिया और उसका वध ही करने वाले थे कि बलरामजी ने क्षमादान दिला दिया.

रूक्मी वीर था लेकिन प्राणदान धोर अपमान की बात थी. श्रीकृष्ण तो बहनोई हो गए इसलिए उसने उन्हें माफ कर दिया लेकिन श्रीकृष्ण से प्राणदान दिलाने के लिए मनुहार करते समय बलरामजी ने जो शब्द कहे थे वे रूक्मी को हमेशा स्मरण रहे.

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