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हनुमानजी लौटे तो उन्हें पता चला कि प्रभु ने तो पहले ही शिवलिंग स्थापित करा दिया है.
वह सोचने लगे- मुझसे व्यर्थ का श्रम कराकर यह कैसा व्यवहार हो रहा है.
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वह नाराज होकर प्रभु के सामने पहुंचे और कहा- मेरी भक्ति का यह कैसा ईनाम मिल रहा है. काशी भेजकर शिवलिंग मंगाने और फिर दूसरा शिवलिंग स्थापित कराकर मेरा उपहास क्यों कराया आपने?
प्रभु भांप गए कि हनुमानजी अभी तक शिवजी और स्वयं उनके द्वारा संकेत में कही गई बात को समझ नहीं पा रहे हैं. वह मुस्कराने लगे. हनुमानजी का कष्ट और बढ़ गया.
श्रीराम ने कहा- आप सही कहते हैं. आप उस बालूकामय लिंग को उखाड़ दीजिए. मैं आपके द्वारा लाए शिवलिंगों को स्थापित कर देता हूं.
हनुमानजी खुश होकर शिवलिंग उखाड़ने चले. अपनी पूंछ में बांधकर उन्होंने शिवलिंग को पूरी ताकत से खींचा लेकिन उखड़ना तो दूर वह हिला भी नहीं.
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हनुमानजी ने फिर जोर लगाया. शिवलिंग तो न हिला उनकी पूंछ जरूर टूट गई.हनुमानजी मूर्च्छित होकर गिर पड़े.
प्रभु ने उनके शरीर पर हाथ फेरकर स्वस्थ कर दिया. अब उनके मन का सारा गर्व चूर हो चुका था. बजरंगबली को सारी बात समझ में आ गई. उन्होंने प्रभु से क्षमा मांगी.
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