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इंद्र सन्नाटे में खड़े यह सोचते रहे कि जिसकी इतनी लंबी उम्र है वह एक घास फूस का घर भी नहीं बनाते, चटाई ओढे जीवन गुजारते हैं और मैं इतना बड़ा भवन बनवा रहा हूं. उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा हुआ.
इंद्र ने तत्काल विश्वकर्मा को बुलवाया. क्षमा प्रार्थना के साथ काफी धन देकर कार्य को रोकने का अनुरोध किया. बटुक और लोमश की बातें सुनकर इंद्र का मन विरक्त हो उठा. स्वर्ग के ऐश्वर्य से उन्हें घबराहट होने लगी. उन्हें अपना अगला जीवन चींटे का दिखने लगा.
सोच विचारकर इंद्र ने वन में रहकर तप का निर्णय किया. वह अपने आलीशान महल से निकले ही थे कि देवताओं के गुरु वृहस्पति उन्हें मिल गए.
बृहस्पति ने सारी बात सुनी फिर उन्हें समझा कि आपके द्वारा किए जा रहे अनुचित कार्य से क्षुब्ध श्रीहरि ने आपको शक्तियों का आभास कराया है.
श्रीहरि यह नहीं चाहते कि आप काम-काज छोड़कर विरक्त हो जाएं बल्कि सही तरीके से इसका संचालन करें.
उन्होंने समझा-बुझाकर फिर से राज-काज में लगा दिया.
संसार में ऐश्वर्य की सीमा नहीं. मनुष्य अपने थोड़े से सामर्थ्य को देखकर ही फूल कर कुप्पा हो जाता है. उसे लगता है कि वह चाह ले तो क्या न कर ले.
यह आत्मविश्वास तब तो अच्छा है जब वह किसी सकारात्मक सोच और उद्देश्य के साथ बढ़े परंतु यदि उसकी सोच सही नहीं रही तो पतन का कारण भी बन जाती है. भगवान बहुत साधारण रूप में आकर उसे उसकी हैसियत का अहसास करा देते हैं. यह क्षण बहुत पीडादायक होता है.
होशियार व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी बुद्धि को नियंत्रण में ही रखे अन्यथा घमंड तो देवराज का भी नहीं चलता.
(स्रोत: ब्रह्मवैवर्त पुराण)
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश
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