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एक धर्मात्मा ने बहुत से विद्यालय बनवाये थे, कई सेवाश्रम चलाते थे। दान करते-करते उन्होंने काफी धन खर्च कर दिया था. बहुत सी संस्थाओं को दान देते थे. अखबारों में नाम छपता था. वह भी स्वर्णपात्र लेने आए किन्तु उनके हाथ में भी जाकर मिट्टी का हो गया.
पुजारी ने कहा- ऐसा लगता है कि आप पद, मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं. नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं है. इसी प्रकार बहुत से लोग आए, किन्तु कोई भी स्वर्णपात्र पा नहीं सका. सबके हाथों में वह मिट्टी का हो जाता था.
कई महीने बीत गए. बहुत से लोग स्वर्णपात्र पाने के लोभ से भगवान के मंदिर के आसपास ही ज्यादा दान-पुण्य करने लगे. लालच की पट्टी पड़ गई थी और मूर्खतावश यह सोचने लगे कि शायद मंदिर के पास का दान प्रभु की नजरों में आए.
स्वर्णपात्र उन्हें भी नहीं मिला. एक दिन एक बूढ़ा किसान भोलेनाथ के दर्शन को आया. उसे इस पात्र की बात पता भी न थी. गरीब देहाती किसान था तो कपड़े भी मैले और फटे थे.
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