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मुगल दरबार के गायक तानसेन थे तो अच्छे गायक लेकिन उन्हें अपनी कला का घमंड हो गया था. राजदरबार में होने से दो अवगुण भी आए थे. एक तो स्वयं अकबर की चापलूसी करते, दूसरी यदि कोई उनकी चापलूसी करता तो उसको आनंद लेकर सुनते.

उस समय ऐसे गायकों की भी कमी न थी तानसेन से भी अच्छा गाते थे लेकिन वे लोग सिर्फ भगवत भजन में लीन रहते. किसी राजा के लिए प्रशंसा गीत गाकर धन कमाने से ज्यादा आनंद उन्हें अपने स्वर से प्रभु भक्ति करके दरिद्र रहने में आता था.

वल्लभ संप्रदाय के आचार्य विठ्ठलनाथजी के पास ऐसे कई भजन गायक थे जो प्रभु सुमिरन में मगन रहते. एक बार तानसेन का मुलाकात विठ्ठलनाथजी से हुई. तानसेन इशारों में अपनी प्रशंसा से शुरू करते हुए मुगल दरबार में अपनी पकड़ तक का अहसास कराने लगे.

विठ्ठलनाथजी समझ गए. उन्होंने तानसेन को गीत सुनाने को कहा. तानसेन ने वह गीत सुनाया जो अकबर को बहुत पसंद था. प्रसन्न होकर विठ्ठलनाथजी ने तानसेन को एक हजार रूपये और दो कौड़ियां ईनाम के तौर पर दीं.

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