महाभारत युद्ध अंत की ओर पहुंच रहा था. कमलकुंड में छिपे दुर्योधन के साथ भीम का गदायुद्ध समाप्त हुआ था. श्रीकृष्ण की सहायता से भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया था.

घायल दुर्योधन बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था. अपने पिता की हत्या से आहत द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने जब मित्र की दुर्दशा देखी तो वह बौखला गया.

अश्वत्थामा परम वीर होने के साथ ही साथ बड़ा ज्ञानी भी था लेकिन उसके मन में धधकती पांडवों से प्रतिशोध की अग्नि उसे अधर्म के रास्ते पर ले गई.

वह जानता था कि युद्धभूमि में पांडवों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता सो उसने रात के अंधेरे में सोते हुए पांडवों की हत्या की सोची.

रात्रि में अश्वत्थामा पांडव शिविर में घुस आया लेकिन उस रात वहां पांडवों के स्थान पर द्रौपदीपुत्र सो रहे थे. अश्वत्थामा को अंधेरे में वे पांडव लगे. उसने सबकी गर्दन काट ली.

द्रौपदी पुत्रों की गर्दन लेकर वह दुर्योधन के पास पहुंचा लेकिन दुर्योधन ने उन्हें पहचान लिया और अश्वत्थामा की इस तरह के कायरों जैसे कार्य की निंदा की.

द्रौपदी अपने मृत पुत्रों को देखकर विलाप करने लगीं तो अर्जुन ने प्रतीज्ञा की कि वह अश्वत्थामा की गर्दन काटकर लाएंगे जिस पर पांव रखकर द्रौपदी विलाप करेंगी.

वन में छुपा अश्वत्थामा वेद व्यासजी के पास जाकर उनसे प्रायश्चित का मार्ग पूछ रहा था कि तभी अर्जुन वहां पहुंच गए. अश्वत्थामा को मृत्यु सामने दिखी.

प्राणरक्षा का अंतिम प्रयास करते उसने ब्रह्मास्त्र चला दिया. ब्रह्मास्त्र के उत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का संधान किया और चला दिया. दोनों शक्तियों के टकराने से सृष्टि के विनाश का संकट पैदा हो गया.

वेद व्यासजी और श्रीकृष्ण ने दोनों से ब्रह्मास्त्र को वापस लेने को कहा. अर्जुन को ब्रह्मास्त्र वापस लेना आता था लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र को वापस लेना नहीं आता था.

ब्रह्मास्त्र पांडवों के वंश का नाश करने के लिए चलाया गया था. अश्वत्थामा ने कहा कि उसे ब्रह्मास्त्र की दिशा बदलनी आती है. चूंकि ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता इसलिए श्रीकृष्ण ने रास्ता निकाला.

द्रौपदी के पांचों पुत्रों की हत्या हो चुकी थी और पांडवों के वंश के उत्तराधिकारी के रूप में सिर्फ अभिमन्यु का गर्भस्थ पुत्र ही बचा था इसलिए श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से ब्रह्मास्त्र की दिशा उत्तरा के गर्भ की ओर करने को कहा.

पति के बाद अपनी संतान को भी समाप्त होता देखकर उत्तरा के साथ द्रौपदी विलाप करने लगीं. दोनों ने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी और शिशु की रक्षा करने को कहा.

कृष्ण ने लघु रूप धरा और उत्तरा की कोख में प्रवेश कर अभिमन्यु पुत्र के कवच बनकर उसकी करने लगे. कोख में ही बालक की परम परीक्षा हो चुकी थी इसलिए उसका नाम परीक्षित हुआ.

अर्जुन अश्वत्थामा को पकडकर ले आए थे और द्रौपदी के हवाले कर दिया. द्रौपदी गुरूपुत्र की हत्या करने के पक्ष में नहीं थीं. युधिष्ठिर भी इससे सहमत थे.

श्रीकृष्ण ने कहा- अश्वत्थामा नीच कर्मों पर उतारू हो चुका है. इसलिए उसके सिर पर मणि सुशोभित नहीं होता. अर्जुन ने उसके माथे पर चमकती मणि उतार ली और उसी अवस्था में छोड़ दिया.

युद्ध समाप्त होने पर श्रीकृष्ण द्वारका लौटे. विदुर के परामर्श पर धृतराष्ट्र और गांधारी जीवन का अंतिम समय वानप्रस्थ में काटने को वन चले गए. कुंती भी उनके साथ गईं.

युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया. युद्ध के रक्तपात से सभी का मन व्यथित था. अश्वमेध के बाद श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन भी द्वारका गए थे.

काफी समय बाद जब वह लौटे तो उन्होंने पांडवों को द्वारका के जलमग्न होने और श्रीकृष्ण के अपने धाम लौटने की बात बताई. युधिष्ठिर ने राजपाट परीक्षित के हवाले किया और शरीर त्यागने के लिए उत्तर दिशा में चले गए.

परीक्षित को कलियुग के दर्शन हुए जो जीवहत्या कर रहा था. उन्होंने उसे दंड देने का निश्चय किया और फिर वह उनके मुकुट में प्रवेश कर गया.

कलियुग ने परीक्षित से अनुचित कार्य कराया और फिर मोक्ष के लिए उन्हें शुकदेव ने भागवत कथा सुनाई. यह प्रसंग कल.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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