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मनु और शतरूपा की संतानों में हमने अभी तक उनकी पुत्रियों के विषय में चर्चा की. आज उनके पुत्र उत्तानपाद और उनकी संतानों की कथा आरंभ करते हैं.

मनुपुत्र राजा उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं- सुरुचि और सुनीति. सुनीति के पुत्र थे ध्रुव और सुरुचि के पुत्र हुए उत्तम. राजा सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे.

एक दिन उत्तम पिता के संग खेल रहे थे. तभी ध्रुव वहां आए और छोटे भाई को पिता की गोद में देख वह भी उनकी गोद में आने का प्रयास करने लगे.

यह देख सुरुचि क्रोधित हो गईं. उन्होंने ध्रुव को पिता की गोद से बलपूर्वक उतार दिया और बोलीं- पिता की गोद में बैठने का सुख पाना चाहते थे तो मेरे गर्भ से जन्म लेना चाहिए था.

ध्रुव रोने लगे. उन्होंने पिता की ओर देखा लेकिन पत्नी प्रेम में डूबे उत्तानपाद बेटे के साथ हुए इस अन्याय पर भी चुप रह गए. ध्रुव ने अपनी माँ से सारी बात बताई.

ध्रुव ने माता से पूछा- पिता का प्रेम प्राप्त करने का क्या उपाय है? सुनीति बोलीं- नारायण की उपासना से संसार के सभी सुख प्राप्त होते हैं. तुम नारायण को प्रसन्न करो.

ध्रुव के मन में माता की बैठ गई. वह तप करने निकल पड़े लेकिन पांच साल के बालक को नारायण की आराधना की विधि नहीं आती थी. वह वन में भटक रहे थे.

देवर्षि नारद ने वन में ध्रुव को देखा. नारद ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि तुम्हारी उम्र तप की नहीं है. लेकिन बालक ध्रुव निश्चय करके आए थे.

नारदजी ने उन्हें नारायण मंत्र की दीक्षा दी और कहा- यमुना किनारे मधुवन में जाओ और वहां इस मंत्र को जपते हुए प्रभु का ध्यान करना.

नारायण ने ध्रुव को नारायण का रूप बताया. ध्रुव नारायण की उसी छवि का ध्यान करते द्वादशाक्षर मंत्र ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करने लगे.

इधर ध्रुव के वन चले जाने से उत्तानपाद अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित हुए. ध्रुव को दीक्षित करने के बाद नारद उत्तानपाद के पास आए और चिंता का कारण पूछा.

उत्तानपाद ने कहा- मैं पुत्र के लिए चिंतित हूं कहीं वन में उसे पशु न खा गए हों. नारद ने बताया कि ध्रुव साधारण बालक नहीं. स्वयं नारायण उनकी रक्षा कर रहे हैं. आगे जाकर ध्रुव प्रतापी राजा होंगे.

ध्रुव वन में श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करने लगे. पहले मास उन्होंने सिर्फ फल खाए, दूसरे महीने घास और सूखे पत्ते खाने लगे.

तीसरे महीने सिर्फ जल पर और चौथे महीने सिर्फ हवा पर रहे. पांचवे महीने से ध्रुव ने श्वास लेना भी बंद कर दिया. तप से घोर ऊर्जा प्रकट होने लगी. तप की अग्नि से देवता भी पीड़ित होने लगे.

वे नारायण के पास गए और उनसे बालक को दर्शन देने की विनती की. नारायण ध्रुव के सामने आए और उनसे आंखें कोलने को कहा. ध्रुव को नारायण के दर्शन हुए.

नारायण को सामने देखकर बालक ध्रुव को समझ में न आया कि वह नारायण की स्तुति किस प्रकार करें. वह बोल नहीं पा रहे थे. आनंद में डूबे ध्रुव की आँखों से आंसू बहने लगे.

नारायण बालक के मन की भावनाएं समझ गए. उन्होंने प्रेम से ध्रुव के गालों को छू दिया. ध्रुव के मन में सारा वेदज्ञान प्रकाशित हो उठा. श्रीहरि ने वरदान मांगने को कहा.

ध्रुव ने कहा- प्रभु आपके दर्शन के बाद अब किसी चीज की कोई अभिलाषा ही नहीं बची. नारायण ने कहा तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी.

तुम महान राजा बनोगे और तीस हज़ार वर्षों तक शासन करोगे. इस जीवन के बाद तुम ध्रुव तारा के रूप में अंतरिक्ष में सर्वोच्च पद प्राप्त करोगे और सप्तर्षि तुम्हारी परिक्रमा करेंगे.

यह वरदान देकर नारायण अन्तर्धान हो गए. उनके जाने के बाद ध्रुव को चेतना आई. ध्रुव पछताने लगे कि उन्होंने नारायण से सांसारिकता से मुक्ति और मोक्ष क्यों नहीं माँगा?

ध्रुव का तप समाप्त हो गया. वह अपने नगर को लौटे. राजा उत्तानपाद पत्नियों और छोटे पुत्र उत्तम के साथ स्वागत के लिए आए और ध्रुव को गले से लगा लिया.

उत्तानपाद ने ध्रुव का विवाह किया और उन्हें गद्दी सौंपकर तपस्या के लिए वन में चले गए. नारायण के आशीर्वाद से ध्रुव महान प्रजापालक राजा बने.

एक बार ध्रुव का छोटा भाई उत्तम वन में शिकार के लिए गया. वहां यक्षों से उत्तम का विवाद हो गया और यक्षों ने उसकी हत्या कर दी. पुत्र की मृत्यु से दुखी सुरुचि ने प्राण त्याग दिए.

ध्रुव ने अपनी सेना समेत यक्षों पर आक्रमण कर दिया. महान योद्धा ध्रुव ने अकेले ही सहस्त्र यक्षों का संहार कर दिया. यक्षों का विनाश होता देखकर ध्रुव के दादा स्वयंभावु मनु ने उन्हें दर्शन दिए.

मनु ने ध्रुव से कहा- ये यक्ष शिवभक्त कुबेर के सेवक हैं. निर्दोष यक्षों को क्षमा कर दो. उत्तम की हत्या के लिए वे उत्तरदायी नहीं हैं. दादा के आदेश पर ध्रुव ने यक्षों को माफ कर दिया.

इससे कुबेर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने ध्रुव को ऐश्वर्ययुक्त बना दिया. नारायण की भक्ति करते हुए ध्रुव ने तीस हजार वर्षों तक कुशल राजा की तरह शासन किया.

उसके उन्होंने अपने बड़े पुत्र उत्कल को राज्य का कार्यभार सौंपकर संन्यास ले लिया और फिर से तप करने लगे.

दार्शनिक स्वभाव के उत्कल की सत्ता में रूचि न थी. उनकी जगह उनके भाई वत्सर को राजा बनाया गया. वत्सर का एक क्रूर और अधर्मी पुत्र वेण हुआ जिससे अत्याचार से प्रजा दुखी थी.

-प्रभु शरणम् मंडली
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