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श्रीपार्वतीजी ने शिवजी से पूछाः सिद्ध पुरुषों के लिए भी जो परम रहस्य की वस्तु है मैं उसका वर्णन आपके मुख से सुनना चाहती हूं.

शिवजी बोले- गिरिनन्दिनी! जो वेद से भी उत्तम है, जिसमें अविद्या का नाश करने की क्षमता है, जो भगवान विष्णु की चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परम पद है. जिसके पाठमात्र से यमदूतों की गर्जना बन्द हो जाती है तुम्हें आज वह रहस्य सुनाता हूं.

हे पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो संतप्त मानवों के त्रिविध ताप को हरने वाला और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला हो. इसके मात्र पांच श्लोकों के पाठ से ही संसार के समस्य ऐश्वर्य सहज ही प्राप्त हो जाते हैं.

पार्वतीजी बोले- हे स्वामी! आपके मुख से यह सुनकर मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है. बिना विलंब किए मुझे वह रहस्य सुनाएं. शिवजी बोले- पांच श्लोकों के पाठ से एक प्राणी को क्या-क्या ऐश्वर्य मिले इसकी कथा सुनाता हूं, ध्यान से सुनना.

भगवान विश्वकर्मा द्वारा रचित मेरुगिरि के शिखर पर अमरावती नामक रमणीय में देवराज इंद्र का वास है. एक दिन इंद्र अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे कि इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के दूतों से सेवित एक अन्य पुरुष वहां आ रहा है.

उस नवागत पुरुष का तेज ऐसा था कि इंद्र उसे सहन न कर पाए और तुरन्त ही अपने मणिमय सिंहासन से नीचे गिर पड़े. इन्द्र सिंहासन से गिर गए तो सेवकों ने देवलोक के साम्राज्य का मुकुट उस नवआगंतुक के सिर पर रख दिया.

नवागंतुक नए इंद्र के रूप में स्थापित हो गए. देवांगनाओं और उनके साथ सभी देवताओं ने उनकी आरती उतारी। ऋषियों ने वेदमंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। गन्धर्वों ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सुंदर स्वर में मंगलमय गान गाना शुरू किया।

इंद्र सोचने लगे कि इस नवीन इन्द्र को जो सम्मान मिल रहा है उसके लिए तो सौ यज्ञों का अनुष्ठान करना होता है परंतु बिना ऐसे यज्ञों का अनुष्ठान किए यह गौरव कैसे प्राप्त हो रहा है. आखिर बात क्या है.

इसने तो मार्ग में न कभी प्याऊ बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम देने वाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये हैं। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों का सत्कार भी नहीं किया है।

इसके द्वारा तीर्थों में सत्र और गाँवों में यज्ञ का अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्य की दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं? इस चिन्ता से व्याकुल होकर इन्द्र भगवान विष्णु के पास अपनी शंका का समाधान पूछने के लिए चल पड़े.

इंद्र क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख बताते हुए बोले- हे लक्ष्मीकान्त प्रभु! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी के पुण्य से मुझे इन्द्रपद की प्राप्ति हुई थी.

किन्तु इस समय स्वर्ग में कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्म का अनुष्ठान किया है न यज्ञों का फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है?’

श्रीभगवान बोले- इन्द्र! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ सब पुण्यों का शिरोमणि है। उसी का आश्रय लेकर तुम भी पद पर स्थिर हो सकते हो।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर इंद्र को संतुष्टि हुई. उन्हें उत्तम उपाय भी मिल गया था. इन्द्र ने ब्राह्मण का वेष बनाया और गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कालिका ग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं.

वही गोदावर तट पर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे। वे अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का स्वाध्याय किया करते थे।

उन्हें देखकर इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके दोनों चरणों में मस्तक झुकाया और उनके समक्ष अठारहवें अध्याय को पढ़ा। उसका प्रभाव ऐसा हुआ कि उन्होंने श्री विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया।

माता पार्वती को इतनी कथा सुनाने के बाद भगवान महेश्वर बोले- देवि, इन्द्र आदि देवताओं का पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम हर्ष के साथ उत्तम वैकुण्ठ धाम को गये। अतः यह अध्याय मुनियों के लिए श्रेष्ठ परम तत्त्व है।

हे पार्वती! गीता के अठारहवें अध्याय जिसे मोक्ष संन्यास योग कहा जाता है, के इस दिव्य माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ। इसके श्रवण मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीता का पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया।

हे महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह समस्त यज्ञों का फल पाकर अन्त में श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

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